हिमाचल के लोकगीतों में ‘लामण’
गीत का सीधा सम्बंध गेयता से है, कण्ठ से है। गीत! जो उल्लास, प्रसन्नता और उमंग का ही प्रतीक नहीं है, दुःख और चिंता का भी प्रतीक होते हैं।अध्यात्म और वैराग्य के भी, प्रेम और विरक्ति के भी। गीत अनपढ़ कंठों सेभी प्रस्फुटित होते हैं और सधे-मंजे रागों से भी सुसज्ति होते हैं। भरपूर वाद्ययंत्रों का सहारा भी लेते हैं और लोक में प्रचलित पारम्परिक यंत्रों का भी। शास्त्रीय संगीत को जहाँ कठिन और श्रमसाध्य अभ्यास की आवश्यकता होती है वहीं लोक संगीत और लोकगीतों में भाव-प्रधान शब्द सामर्थ और अभिव्यक्ति की निपुणता की आवश्यकता होती है, जिसके लिए लोकमानस को न तो किसी पाठशाला की आवश्यकता होती है और न ही किसी अभ्यास की। लोकगीत अपने-आप में किसी भी देश-प्रदेश को उसकी सम्पूर्णता के साथ अपनी संस्कृतिगत अथवा परम्परागत शैली में जीवंत रखने में पूर्णतया समर्थ होते हैं। एक निश्चित मीटर में मुख-दर-मुख ये लोक गीत न जाने कब से गाये जा रहे हैं।
भारत के किसी भी क्षेत्र की भान्ति हिमाचल प्रदेश भी अपनी सांस्कृतिक धरोहरों के रूप में अपने लोकगीतों की एक समृद्ध विरासत अपने आँचल में समेटे हुए है। वैदिक काल में त्रिगर्त के नाम से पुकारे जाने वाले पहाड़ी भू-भाग हिमाचल के अस्तित्व में आने से पूर्व तक पंजाब का हिस्सा थे। विभाजन के बाद भारत प्रदेशों के साथ पहचाना गया और हिमाचल का जन्म हुआ। पाँचवें दशक में हिमाचल के 12 जिले नहीं थे। तब शिमला जिला भी शिमला नहीं था। यह महासू नाम से विख्यात था। वृहद क्षेत्र होने के कारण महासू जिले को दो भागों में बाँटा गया था। जिसके एक भाग को लोअर महासू कहा जाता था और दूसरे को अपर महासू। पहाड़ी क्षेत्रों के दुर्गम मार्गों एवं आवागमन की सुविधाओं की कमी के कारण जब जिलों की संख्या बढ़ाई गई तो यहाँ जिला शिमला और जिला किन्नौर अस्तित्व में आए। किन्नौर क्षेत्र के लोक-गीतों की परम्परा एकदम शिमला जिले से अलग है। हम यहाँ इसी ‘शिमला’ जिले के लोकगीतों पर चर्चा कर रहे हैं, पूरे हिमाचल पर नहीं। शिमला जिले में विभिन्न प्रकार के लोकगीत प्रचलन में हैं, जिनमें गंगी (टप्पे), नाटी (नृत्यगीत), ब्रह्मभक्ति आदि के साथ लामण लोकगीत खूब प्रचलन में हैं।
अलबत्ता गंगी का प्रचलन किन्नौर को छोड़ कर पूरे हिमाचल में है और ब्रह्मभक्ति (भक्तिगीत) का प्रचलन केवल बुशहर क्षेत्र में है। वैसे तो हिमाचल प्रदेश के सभी ऊपरी भागों में लोकनृत्य की लगभग दो परम्पराएँ प्रचलित हैं। जिनमें एक है एकल नृत्य और दूसरी शैली है नाटी। वैसे तो नाटी शैली अलग-अलग नामों से देश के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में प्रचलित है परन्तु नाटी महासू क्षेत्र की विशेषता है। यह समूह नृत्य होता है जिसे स्त्री-पुरुष गोल घेरा बना कर प्रस्तुत करते हैं। गंगी का रूप विशुद्ध पंजाबी टप्पे का रूप है। इसके गायक आपस में उत्तर-प्रत्युत्तर भी देते हैं और इसे एकल भी गाया जाता है। वस्तुतः गंगी प्रेम गीतों का पर्याय ही है। नाटी की श्रेणी में नृत्य गीत आते हैं और नृत्य के समय गाये जाते हैं। ब्रह्मभक्ति अपने नाम के अनुरूप भक्ति गीत हैं। इन गीतों की विशेषता यह है कि इन्हें ब्राह्मण समुदाय द्वारा गाया जाता है। ब्रह्मभक्ति के माध्यम से सभी देवी-देवताओं की आराधना की जाती है।
हिमाचली लोकगीतों में लामण का विशेष स्थान है, इसके गायक-गायिकाएँ न केवल मधुर कण्ठ के स्वामी होते हैं, अपितु बिना रियाज़ के मंजे कंठ से अर्थपूर्ण शब्दों का प्रयोग कर सुनने वाले को मोहित करने में पूर्ण समर्थ होते हैं। लामण का अर्थ अक्सर प्रेम गीतों के रूप में लिया जाता है किन्तु ऐसा है नहीं। यह बात विभिन्न लामण सुनने-पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है। लामण का रूप, एक ‘शे‘र’ अथवा दोहे का होता है। किन्तु न तो यह दोहे के रूप में है और न ही शे‘र की तरह ग़ज़ल का एक हिस्सा, अपितु हर लामण अपने आप में परिपूर्ण होता है। लामण के भाव जीवन की प्रत्येक खुशी अथवा दुःख की ही सशक्त अभिव्यक्ति नहीं करते, यह तो जीवन के प्रत्येक पहलू को हमारे सामने खोलकर रख देते हैं।
‘‘सुख रे लामण दुखा रे गैणे गीता,
दुख न सम्भलो ईजी रे गर्भा भीता’’
(रूपांतरण)
सुख में लामण मुख से फूटे, दुख में गीत भले हैं,
माँ के गर्भ में भी बोलो यह दुःख कहाँ सम्भले हैं
पहाड़ी लोकगीतों की अदायगी का अंदाज़ भी अपनी अलग ही विशिष्ट पहचान रखता है। जंगल में घास अथवा खेतों में फसल की कटाई के समय, जंगल में भेड़-बकरी चराते हुए अथवा अन्य किसी भी फुर्सत के क्षण में बुशहर के पर्वतवासी आपको लामण गाते सुनाई दे सकते हैं। ये लोक-गीत जो जंगल के एक कोने में बिना किसी वाद्ययंत्र की सहायता के गाये जाते हैं और दूसरे कोने से दूसरे पक्ष द्वारा दोहराये जाते हैं या उत्तर में दूसरा लामण गाया जाता है। इसे स्त्री पुरुष दोनों ही गाते हैं। यह लामण किसी एक भाव की प्रस्तुति नहीं करते अन्यथा इन में आप पहाड़ी परम्परा के पूरे जीवन को जान-पहचान और अनुभव कर सकते हैं। लामण लोकगीतों की प्रथम पंक्ति यद्यपि कभी-कभी निरर्थक सी प्रतीत होती है, परन्तु वास्तव में वह निरर्थक तो कतई नहीं होती जबकि कभी-कभी प्रथम पंक्ति का प्रयोग केवल तुक मिलाने के लिए ही किया जाता है फिर भी अधिकतर वह हिमाचली कला और संस्ड्डति की वाहक होती है। प्रथम पंक्ति पर्वतीय परिवेश की प्राड्डतिक संपदा और वहाँ के रीति रिवाजों का आइना रहती है। अलबत्ता दूसरी पंक्ति ही असली मंतव्य प्रकट करती है। यहाँ मैं कुछ लामण उनके हिन्दी अनुवाद के साथ उदाहरण के रूप में दे रही हूँ। आप भी इन पहाड़ी झरनों जैसे मधुर गीतों का आनन्द लीजिए। जरा देखिए सांसारिकता और जीवन के यथार्थ को लामण किस गहराई से उकेरता है।
हिमाचल के तीखे पहाड़ और उनकी विषम जीवन यात्रा कठिन और श्रमसाध्य होती है। आज भले ही हिमाचली महिला पूर्ण रूपेण शिक्षित और प्रगति पथ पर अग्रसर है परन्तु कुछ ही दहाइयों पूर्व छोटी आयु की लड़कियों को ब्याह देना यहाँ का आम रिवाज रहा है। उन दिनों आवागमन के भी इतने साधन नहीं थे। अब बेटी परदेस में अपने दुःख किससे कहे? इसका निर्वाह लामण ने पूर्ण दक्षता से किया है। अब हम देखेंगे कि ससुराल में पहाड़ी लड़की किस तरह से अपनी बात लामण के माध्यम से कहती है।
1-जाणा थी बैणे साहूकारा लै नाणो
जो लिओ कोरमा सो जा तैंडलो खाणो
2-चन्द्रा-सूरजा आपु रसोइये बेठो
ओंरो1 मेरो कोरमा को दी लाइया हेठो2
3-जोता राणिए भोला करूँ आसरो तेरो
लोगुए मुलके रौह3 नाईं लागदो मेरो
4-रातिए धोंइए हरी दीशा पीउणे काण्डे4
रौह न लाग दौ रौह जा लाणो माण्डे5
5-जिदे देनी बापुए तिदे खुबा खोरशु काँडे6
जिदे देनी भाइए तिदे जा रौह्णो माण्डे
6-मा शोटे हुलकी बापू शोटे भोरिया गोला
भाई लागे शोटेदे शावण-भादर ढला
7-तेरो खोरो बूजा7 थी, मेरो खोरो बूजा न कोई
दान्दा रे आमणे8 घान्दी9 गोए बैणे रोए
8-तेरे मेरे बैणे एकी जेए कामाए
तौले लिए सौका, मुलै लिए शाशु पाराए
9-हरो आदरो (अदरक) पैनी दाचिए रीनो
आड़ो10 तेरो बैणे जीउ लै मैं बैर घिनो
(1-खोटे कर्म, 2-दोष, 3-मन, 4-शिखर, 5-विवशता से, 6-पैने काँटे, 7-समझती
थी, 8-बहाने से,9-जी भरकर, 10-दुःख-कष्ट-कठिनाई)
हिन्दी काव्यानुवादः-
1-चाहा था साहूकारों के घर में ब्याह कर जाना
जैसा लिखा भाग्य में बहना पड़ता वैसा खाना
2-हे चन्दा, हे सूरज तुम्हें रसोई में बैठाऊँ
खोटे भाग्य हमारे हैं तो किसको दोष लगाऊँ
3-मधुर चान्दनी चन्दा की मैं करूँ आसरा तेरा
देस बेगाना (ससुराल) लोग पराये मन नहीं लगता मेरा
4-तीखी धूप भरी दोपहरी शिखर दिखते हैं पीले
विवश लगाना पड़ता मन को नयन हो रहे गीले
5-विदा किया बापू ने काँटे तीखे चुभने लगते
जहाँ विदा भाई ने कर दी, विवश रहे घर बसते
6-अम्मा आये याद तो हिचकी पिता याद कर भरे गला
भाई-बहन याद आयें तो दृग से श्रावण-भाद्र भला
7-मैं जानू विपत्ति तेरी, मेरा दुःख कोई न खोले
लगा बहाना दशनपीर का जी भर बहना रो ले
8-भाग्य हमारा बहन एकसा क्यों इतना घबराई
तेरे लिए दुःखदायी सौतन मेरी सास पराई
9-अदरक हरा दराँती पैनी छिलके लिए निकाल
प्रेम तुम्हारा बहना मेरे जी का है जंजाल
मायके और ससुराल के प्रेम का झूला झूलती नायिका का मन टटोलने के बाद आइए अब जरा शृंगार रस का आनन्द लीजिए। हिमाचली लामण में नायक-नायिका अपने प्रेम की अभिव्यक्ति किस प्रकार करते हैं यह देखा जाएः-
1-मना रौ भाउणों नाई गयो धारटी पौरू
चींजे न शुणदों बेदे ना आउंदो औरू
2-काँसेओ भड्डुआ तोलेओ पाणो पाणी
बीह मुठी देवला भात देए रिलु लै चाणी
3-लाम्बी सगाइये1 खोबे दी बिसरे काँगे
का शाँए रिलुआ2, मूँ त गे लोगुए चाँदे3
4-रैली6 पाके रैडले, पीपल़ पाकदे दाणे
तेरो पाको जोबना फल न मिलदे खाणे
5-जगमगो शिमला तेता के बढिया दिली
खाओ न पाकड़ो जीउ थाको एणिओ मिली
6-दिल्ली सेका नाणों7 लाहोरो आणो होटे
रिलू लै बोलणो, काड़ो कागदा मुँदी8 शोटे
7-शाल़टी9 गउए तेरे कड़ोलुए शींगा
रीशदो माणशा10 धुरी बिले11 बादल़ी रींगा
8-बोंदे पाणिया12 मुठी दी आंदो र्नाइं
मना दी बुशणी13 तुमु आगे लाणी नाईं
9-वारा-पारा तुमे मेला कोरा मिलापा
नोदी न तोरिया नदी होआं लालड़ू़ू14 सापा
10-जोता पाछा तारो निकल़ो मदु
आज मिले सुपने ऐबे जाणे मिलणो कदू
11-चो बणे चड़कू एकी चईं डालिए बेठे
कालि़ए बादल़ी कालि़या बोहे कल़ेसे
12-भांग्रिए डालि़ए उचिए कुम्बरी खाओ
होरि शाए रिलुआ हमु न बिसरी जाओ
13-बालि़अ भीतरे दिशा थो रिलुओ जानू
एक मनै सोंचा ती ईंया तीरी15 पाथरे भानू
14-खोटेआ माणुआ खोट बताओ किले
माटो चुंगे औंदड़ी16-हाथा करे सूरजा बिले
15-नेउड़ी पीपड़ी17 खाणा लै होआँ चरेरी18
दिन लागा ओडदौ19 याद लागे आन्दे तेरी
(1-सीढ़ी, 2-प्रेमी, 3-उचक ली गई 4-परले पार, 5-बुलाने से, 6-बेर, 7-ब्याह
कर जाना, 8-कभी नहीं, 9-सांवली, 10-ईष्र्यालु ;शंकालुद्ध मनुष्य
11-क्षितिज पर, 12.बहते पानी, 13.मन की बातें, 14.कुलनासी, 15.खिड़की,
16.मैदानी मिर्च, 17.अंजुरि, 18.तीखी, 19.अवसान)
हिन्दी काव्यानुवादः-
1-पर्वत के उस पार खो गये मीत मेरे मन भावन
सुनते नहीं पुकार हमारी होगा कैसे आवन
2-नाप-तोल कर पानी डाला भरी पतीली काँसे की
बीस मुट्ठियाँ भात देवला प्रीतम के हित राँधूँगी
3-लम्बी सीढ़ी के आले में कंघी रखकर भूल पड़ी
कायर प्रेमी अब क्या देखो मैं बेगाने हाथ चढ़ी
4-घनी बेरियाँ, बेर पके पीपल पर दाने पकते हैं
तेरा यौवन गदराया है बिटर-बिटर हम तकते हैं
5-जगमग शिमला नगर निराला उससे दिल्ली शहर भला
मैंने तो कुछ लिया-दिया नहीं मन क्यों तेरी ओर चला?
6-दिल्ली हो कर जाना तुम लाहौर शहर से लौट आना
पिय को संदेशा है मेरा पूरा पढ़कर घर आना
7-गोल कड़े से सींग तुम्हारे ए री गाय सांवली सी
रूठा प्रेमी बदली जैसे, घुमड़े कहीं बावली सी
8-बहती जलधारा मुट्टी में कैसे आ पायेगी
तुम को मन की बात किस तरह समझाई जाएगी
9-नदी तरोगे कैसे, इसमें रहे सर्प कुलनासी
नदिया के उस पार खड़े तुम मैं इस पार उदासी
10-आगे-आगे आई चाँदनी पीछे चमके तारे
आज मिले तुम सपने में, फिर कब हों दरस तुम्हारे
11-चार बनों के पंछी आकर एक डाल पर बैठे
काले बादल बतला तो, मेरे प्रियतम क्यों ऐंठे?
12-हरी भांग की डाली, कोंपल हुई नशीली मत खाना
रूपछटा लख गैर की प्रियतम, हम को भूल न तुम जाना
13-खिड़की के पीछे प्रियतम का पाँव जरा सा दिखाता है
पत्थर मार तोड़ दूँ खिड़की, बाधा से जी जलता है
14-ओ कपटी प्रियतम क्यों हरदम सौगन्धें खाये झूठी
कर तो हाथ ओर सूरज की! अंजुरि में भर ले मिट्टी
(अर्थात् सौगंध खा कर सच सच कह।)
15-मैदानों की तीखी मिर्चें, मुँह मेरा जल जाता है
दिन ढलते ही मुझको तो बस ध्यान तुम्हारा आता है।
वर्णन सांसारिकता का हो, या लोक व्यवहार अथवा प्रेम या शृंगार या फिर संवेदनशीलता का ही क्यों न हो हिमाचली लामण हर क्षेत्र में अपना दखल रखता है। इन लोकगीतों में कला के सभी रस आपको अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए नज़र आ जाएंगे। अब ज़रा लामण में जनसाधारण के प्रति संवेदन शीलता भी देखी जाएः-
1-उशटे1 टिबेआ तोड़ा पाणिओ सोरा1
ढल़े मुन्दी टिबेआ, तोड़ा2 ढ़ला माणुओ घोरा
2-चाल़दी गाडिए आस्ते-आस्ते जाए
बाल़ो मेरो शाअ्टू3 ढोंके न डिबरे पाए
3-सुखा रे लामणा दुखा रे गैणे गीता
दुःख नई सम्हलौ इजी4 रे गर्भा भीता
4-शाअ्लो घोड़टु ढीलड़ो छाडे गलामा
चौ दिहाड़िए मेरे जिमी रौ कामा
5-सरली सेरीए औरू-पौरू बोली भगौड़ेे5
एणी बाँकी नगरी माहणु गे बसदे थोड़े
6-आगे खाए जिंजणा6, दुईं खाए फेडुए टोरे
जेई पड़ी बिबता तेई नेई कसिए सौरे
7-भरी फूला लाएओ किछ न सौरगे नाणों7
फूला माँझी एक फूल बीणेओ लाणों
8-शाड़टु बाड़ेओ8 आड़े लागो जंजाले़
चीणी नीणों सौरगे, ढाड़े लाणो पाइताले़
9-झूठे देआ धर्मा कलिजुगा रे लोगा
टाकू-फाफरा बदरी नारैणा भोगा
10-चन्द्रा-सूरजा जोता री पोरबी9 लागा
कोह नहीं सूंचणों कोह नहीं रेरुए भागा?
11-ओंरो-पूरो10 जो देओ सेईंया रामा
ठोंएओ हाण्डणों, ठोएंओ11 खटेओ खाणा
(1-ऊँचे, 2-सरोवर, 3-बाली उमर ;अल्हड़ अवस्थाद्ध, 4-माँ, 5-बड़े-बड़े खेत,
6-बास्मती, 7-स्वर्ग जाना, 8-बाली उमर, 9-ग्रहण, 10-आधा-पूरा, 11-धैर्य
से,)
हिन्दी काव्यानुवादः-
1-ऊँचा टीला नीचे गहरे पानी का सर लहराये
ओ टीले गिरना मत, नीचे मानव ने घर बनवाये
2-चलती गाड़ी धीरे-धीरे अपने पथ बढ़ती रहना
अभी न कुछ देखा जग में खाई में मत लुढ़का देना
3-लामण सुख में मुख से फूटे दुख में गीत भले हैं
मातृगर्भ से सुख-दुःख सारे मानव संग चले हैं
4-साँवल घोड़ा मेरा मैंने ढीली कर लगाम छोड़ी
चार दिनों का काम खेत का, शेष रही मेहनत थोड़ी
5-घाटी में सीधी ज़मीन और बड़े-बड़े हैें खेत यहाँ
यह तो बस्ती है परबत की मैदानों की भीड़ कहाँ?
6-पहले छत्तिस व्यंजन मिले बाद में कोंपल घास
कोई नहीं साथी विपदा में कोई न बैठे पास
7-फूलों से तन भले सजा ले स्वर्ग न मिल पायेगा
उपवन-उपवन बीन-छान इक फूल ही मन भायेगा
8-बाली उम्र कलेस प्रेम का मन का सब जंजाल
मन करता निर्माण स्वर्ग तक, गिर मिलता पाताल
9-झूठे वचन-धर्म देते कलयुग में सारे लोग
बद्री नारायण में तो बस मिले फाफरा भोग (मोटा अन्न)
10-हे चन्दा, हे सूरज तुमको ग्रहण नित्य लगता है
किसे न चिन्ता व्यापी जग में किसे न दुःख ठगता है।
11-पूरा-आधा रहा भाग्य में, जो ईश्वर ने दीना
शीश झुका कर किया कर्म भी ग्रहण भी झुककर कीन्हा
माला के सुन्दर मनकों जैसा महासू का लोकगीत लामण, महासू क्षेत्र के पर्वतवासी जन-जन में सभी रसों के संचार करने वाला लामण लोकगीत भला भक्तिरस से विरक्त कैसे रह सकता है? हिमाचली संस्कृति को मन्दिरों अथवा देव संस्कृति के तौर पर भी जाना जाता है। आप को यहाँ पर प्रत्येक गाँव में किसी न किसी देवता का मन्दिर मिल जाएगा। यह स्थानीय देवता एक प्रकार से इस गाँव अथवा क्षेत्र के अधिष्ठाता भी कहे जाते हैं। जो फैसले न्यायालय नहीं कर पाता वह यहाँ के देवता चुटकियों में करते हैं और लोग इन्हें मानते भी हैं। अन्य लामण गीतों की ही भान्ति देवी देवताओं के लिए भी हिमाचल में लामण गाए जाते हैं। इन लामण गीतों में प्रत्येक उस वस्तु की चर्चा है जिसका प्रयोग देवता के लिए किया जाता है। इस प्रकार हम इन लामणों के भाव को समझ कर दूर बैठे हुए भी हिमाचल के मन्दिरों में पहुँच जाते हैं और हमें अनायास ही देव दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो जाता है। इसके साथ ही लामण में हमें दार्शनिकता का भी दर्शन होता है। देखिएः-
1-काल़ेआ बाछुआ हरी दरुमण1 चोरे
जौं पूछा जौंपरी केती आओ धोरमा कोरे
2-जमो राजा खोलो परौड़िया2 शाणों
इन्द्रपुरा लै आमा-बापू मिलदे जाणों
3-बापू न मिलदो बापू होआ जौं3 बरींदा4
घोरे नाए बेटीए छेडू करे बालका चिन्दा
4-कुशुई देवीए लप5 जमाणा6 तेरी
डोरू लागा कुपड़े शिरे लागा शाणी केउड़ी
5-जेठो7 काजल़ा8 कानो बसारू9 भाई
लाटी झारी देवी दौ-शौउए10 जाइ11
(1-चारागाह, 2-ड्योढ़ी, 3-काल ;यमराजद्ध, 4-सहोदर, 5-लचकीली, 6-पालकी में
लगी हुई वह लकड़ी जिसके सहारे पालकी उठाई जाती है, 7-ज्येष्ठ, 8-इन्द्र
;काजल जैसे काले बादल देने वालाद्ध, 9-छोटा दत्तात्रेय, 10-दो सौ की लगान
देने वाला क्षेत्र, 11-बेटी)
हिन्दी काव्यानुवादः-
1-काले-काले बछड़े हरी-भरी घाटी तुम चर आये
पूछ रहे यमराज जीव से धर्म कहाँ तक कर आये
2-यमराजा तुम तनिक ड्योढ़ियों के ताले खुलवा देना
इन्द्रपुरी जाना है मुझको माँ-बापू मिलवा देना
3-अम्मा-बापू मिलें न बिटिया वे अब प्रियजन यम के हैं
घर जा! बच्चों की चिन्ता कर वे माला के मनके हैं
40-कुशवी देवी तेरी पालकी में लचकीले बेंत लगे
वस्त्र छुएं आँगन को सिर पर ज्यों केउल़ी के खेत उगे
41-भ्राता छोटा हुआ बसारू ज्येष्ट देवता काज़ल है
लाटी झारी बहन हुई दौ-शौ का अब तो मंगल है
(हिमाचल की देव परंपरा में दत्तात्रेय और इन्द्र भाई हैं। गूंगी ‘झारी’ देवी इन दोनों की बहन है। दौ-शौ ;200 के लगान वाला क्षेत्रद्ध क्षेत्र के राजा की ये तीनों सन्तानें कही जाती हैं। इस प्रकार देव परम्परा से जुड़े इतिहास पर भी हम इन लामणों के माध्यम से एक नज़र डाल सकते हैं। देवता! यहाँ पालकी में मोहरे (चेहरे या मुखोटे) रखकर नचाए जाते हैं। पालकी में विशेष लचकदार लकड़ी के लम्बे डंडों का प्रयोग होता है जिन्हें जमाणी कहा जाता है, दो व्यक्ति पालकी को दोनों ओर से कंधों पर उठाकर नचाते हैं। केउल़ी (केली) एक विशेष पहाड़ी वृक्ष है यह लचकदार लकड़ी उसी वृक्ष की होती है। इसके पत्ते और टहनियाँ देवी-देवताओं की सजावट के प्रयोग में लाई जाती हैं।
— आशा शैली