ग़ज़ल
मिली जीस्त दुर्लभ, बचाते रहो तुम
दुखों के पहाड़ें, हटाते रहो तुम |
कभी नींद आये न आये, पता क्या
सुहाने वो सपने, सजाते रहो तुम |
सभी प्रेमियों को रुलाया जमाना
चिरागे मुहब्बत जलाते रहो तुम |
वफ़ा के लिये जान कुर्बान जो दे
वही प्रेम नाता निभाते रहो तुम |
खुदाई में सबको मुहब्बत का’ हक़ है
विरोधी सखा को जताते रहो तुम |
सताया बहुत वक्त प्रेमी जुगल को
खता जो किया जग, बताते रहो तुम |
गुलों से सजा रूप गुलसन है’ जीवन
गुलों के महक को लुटाते रहो तुम |
कभी ना रुलाना बहुत है यहाँ गम
हँसाना है’ दुस्कर हँसाते रहो तुम |
ख़ुशी का वो’ लम्हा अगरचे मिले अब
सितारों से’ उसको चुराते रहो तुम |
पहाड़ी गुलों के वो’ रंगत उडी क्यों
दिवारें उठी जो गिराते रहो तुम |
मिलो और बोलो फतह दिल सभी का
नशा और ‘काली’ मिटाते रहो तुम |
कालीपद ‘प्रसाद’