मुक्तक
कुछ दीप आँधियों में जलते हैं
तालाबों में ही कमल खिलते हैं
दामन बुराई का छोड़ दो तुम
हर नर में नारायण मिलते हैं
इस तरह ख्वाबों मे, वो आने लगे
गीत हम प्यार के गुनगुनाने लगे
पहले तो आते थे रातों में ही
अब दिन में ही आके सताने लगे
सरहदों पर ये सैनिक,मरते है क्यों
ये नेता सिर्फ़ निन्दा,करते है क्यों
कब तक टुटेगी,कलाई से चूड़ियाँ
आरपार करनें से,ये डरते हैं क्यो
बेख़बर देहलवी
महासचिव
अखिल भारतीय साहित्य उत्थान परिषद्