दशहरा पर्व (30 सितंबर) के दोहे
पर्व दशहरा कह रहा,सदा विनत् हो भाव !
अहंकार की लुप्तता,निशिदिन सत्य प्रभाव !!
धर्म सदा होता विजयी,शुभ-मंगलमय गान !
सत्ता-मद होता बुरा,कर देता अवसान !!
सदा सरल हो आचरण,प्रेमभाव हो संग !
तभी खिलेंगे ज़िंदगी,में सचमुच नव रंग !!
कुंभकरण -रावण मरा,सकल वंश निर्मूल !
पर नारी को हर लिया,बहुत बड़ी यह भूल !!
हर कोई दूषित हुआ,भरा हुआ है मैल !
पर्व दशहरा कह रहा,गहो सत्य की गैल !!
राम नाम प्रभुता लिये,रावण में अभिमान !
रावण का दुष्कर्म ही,बना पतन-सामान !!
विजयादशमी कह रही,जब बढ़ जाता पाप !
आते प्रभु ख़ुद ही धरा,हरने को अभिशाप !!
रावण को जो मारता,वह बन जाता राम !
जीते अंतर को ‘शरद’,निशिदिन सुबहो-शाम !!
जलते पुतले कह रहे,नहीं करो दुष्कृत्य !
अंधकार को मारकर,बन जाओ आदित्य !!
गूंजे बस यह शब्द नित, राम-राम मम् राम !
राम नाम सच में ‘शरद’,मोहकऔ’अभिराम !!
— प्रो. शरद नारायण खरे