गज़ल
हमें भी रंग बदलना आ गया है,
गिर-गिरकर संभलना आ गया है
ना धुआं है ना ही आवाज़ कोई,
खामोशी से जलना आ गया है
खिलते फूल की खुशबू के जैसे,
हवाओं में बिखरना आ गया है
शाम होते ही खो जाता हूँ खुद में,
मुझे सूरज सा ढलना आ गया है
सलामत तुम रहो अपने जहां में,
मेरे दिल को उजड़ना आ गया है
अब घर की ज़रूरत ही नहीं है,
हमको अब भटकना आ गया है
— भरत मल्होत्रा