कविता : किसी रुद्र से परे नही हूं
किसी रुद्र से परे नही हूं
जब अपनी पर आती हूं
स्वाभिमान की खातिर तो
अग्नि तक से लड़ जाती हूं ।।
मैं रक्षक हूं मैं भक्षक हूं
आद्य शक्ति का हूं प्रतीक
युद्ध भूमि में कूद पडूँ तो
रणचंडी बनती सटीक ।।
पीड़ा को ललकारती हूं
पर खुद जौहर बन जाती हूं
अपनी आन मर्यादा के हित
यम तक से भिड़ जाती हूं ।।
बहुत हो चुकी हँसी ठिठौली
जागी हूं अब सबला बन कर
अपने आत्मबल के सम्मुख
सदा रहूंगी विमला बन कर ।।
मैने सभी बनाये पुतले
इस धरती की माटी बन कर
आगे जगत बढ़ाया मैंने
संस्कृति की परिपाटी बन कर ।।
अब न ही कोई जुल्म सहूंगी
न ही कुछ अनदेखा होगा
अब मेरे हर अत्याचार का
पूरा लेखा जोखा होगा ।।
— सुशीला जोशी