ग़ज़ल
न जानूँ मैं बताऊँ कैसे’ मन में जो दबाई है
जबां पर यह नहीं आती मे’रे खूँ में समाई है |
नहीं था जीस्त में आराम शाही खानदानों ज्यो
निभाया मैं प्रतिश्रुति और तुमने भी निभाई है |
अभी तुझको कहूँ क्या, तू बता क्यों बे-वफाई की
तेरी झूठी मुहब्बत में, प्रतिष्ठा सब जलाई है |
जनम भर हम रहेंगे साथ, वादा तो तुम्हारा था
अकेला छोड़ कर मुझको, बहुत तुमने रुलायी है |
दिखाती प्यार बेहद थी सदा पर छोड़ी’ क्यों अब हाथ
बिना बोले चले जाना, यही तेरी बुराई है |
सदा तुम खेलती थी, गेंद बेचारा मेरा दिल था
मुहब्बत के वो’ खेलों में वफ़ा तुमने भुलाई है |
गज़ब नाराजगी तेरी, उफनती वो पयस जैसा
हो’ जाती शांत जब, लगती है’ तू मीठी मलाई है |
कालीपद ‘प्रसाद’