भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी
नवभारतटाइम्ज़ की प्रसिद्ध ब्लॉगर श्री लीला तेवानी जी को मन की बात बताने के लिए एक ईमेल किया था। उन्होंने एक ब्लॉग की शकल में नवभारतटाइम्ज़ में पेश कर दिया। मेरे मन में विचार आया कि इस ब्लॉग को जयविजय के साहित्कारों से शेअर करूँ। सो लीजिये पेश है मेरे मन की ख्याहिश।
सरल हिंदी का ज्ञान जरुरी है !
लीला बहिन,
मैं पंजाब के पछड़े हुए एक गांव में पैदा हुआ और आठवीं तक की शिक्षा गांव में ही प्राप्त की. जब मैं स्कूल दाखिल हुआ था, उस वक्त पंजाबी नहीं पढ़ाई जाती थी, जो पंजाब की जुबां है, सिर्फ उर्दू ही पढ़ाया जाता था. आज़ादी के कुछ समय बाद ही स्कूल में उर्दू ख़त्म कर दिया गिया. यह समय शिक्षकों के लिए भी बहुत मुश्किल था, क्योंकि उन्होंने सिर्फ उर्दू ही पढ़ा हुआ था. एक शिक्षक कुछ महीने बाद कहीं से बदल कर हमारे स्कूल में आये, जिनका नाम बिरजलाल था. हम ऊलजुलूल बातें पंजाबी में लिख कर उनको दिखाते थे और कहते थे “मास्टर जी नंबर दो”, वे बिना देखे-पढ़े दस में से सात-आठ लिख देते थे, क्योंकि उनको पढ़ना ही नहीं आता था. हम खूब हंसते. चौथी या पांचवीं कक्षा में एकदम हम को हिंदी भी पढ़नी पड़ गई. हम पंजाबी लड़के, मुश्किल में पड़ गए, जिन्होंने कभी किसी को हिंदी बोलते सुना ही नहीं था. उस वक्त कोई रेडियो भी नहीं होता था. एक हिंदी शिक्षक आए, जब वे हमें पढ़ाते, उनको देख हम हंसते रहते. हिंदी हमें पश्तो लगती थी. खैर, हिंदी का स्तर तो बिलकुल बेसिक ही था. आठवीं तक कुछ-कुछ हिंदी आ गई, लेकिन हम बोलते पंजाबी में ही थे, यहां तक कि हिंदी के पीरियड के दौरान भी पढ़ते-लिखते हिंदी में थे ,लेकिन बोलते पंजाबी में थे. हिंदी शिक्षक हमें हिंदी में बात करने को बहुत कहते, लेकिन यह हमारे बस का रोग नहीं था. मैट्रिक में भी कुछ-कुछ हिंदी पढ़ी, लेकिन वह भी आसान शब्दों वाली. बचपन से ही मुझे किस्से-कहानी हलके-फुल्के नावल पढ़ने का बहुत शौक था और कभी-कभी हिंदी की किताबें भी ले आता, जिस से मुझे हिंदी इतनी पढ़नी आ गई कि मुश्किल शब्द छोड़ देता और आगे पढ़ता जाता. कालेज के चार साल में कोई हिंदी नहीं पढ़ी. आज जो मैं हिंदी लिखता हूं, वह सब उपन्यास-कहानियां पढ़ने की मेहरबानी समझिए.
यहां मैं एक बात कहना चाहूंगा, कि पता नहीं क्यों, मुझे हिंदी गाने ही अच्छे लगते थे, पंजाबी के नहीं और अभी तक भी नहीं. हिंदी भाषा में मुझे एक मिठास-सी लगती है. आज तक गाने भी मैं हिंदी के ही सुनता आया हूं और अर्धांगिनी साहिबा भी हिंदी गाने पसंद करती है, हालांकि उस को बोलनी इतनी नहीं आती. यहां लाइब्रेरी में भी शुरु से ही जाने की मुझे आदत थी और हिंदी के गुरुदत्त, मुंशी प्रेम चंद और बहुत से बंगाली उपन्यास, जो हिंदी में अनुवादित थे, पढ़ा करता था, लेकिन पेन-कलम से कभी हिंदी नहीं लिखी. जरुरत पड़े तो कुछ-कुछ लिख लेता हूं. संक्षेप में कहूं तो नवभारत टाइम्स से जुड़े, तो ब्लॉग के ज़रिए आपसे मिलना हो गया. इस के बाद क्या हुआ, आप को मालूम ही है. गूढ़-कठिन भाषा में लिखी होने के कारण कविताएं पहले मुझे न कभी समझ में ही आईं, न ही अच्छी लगीं. आपकी सरल कविताओं ने मेरी यह समस्या भी हल कर दी. अब मैं कविता में रस भी लेने लगा था और हिंदी मुझे समझ में भी आने लगी थीं. नवभारत से जुड़कर ऐसे लगा, मानो सारा भारत हिंदी जानता है. यह लिखने का मेरा मकसद एक ही है कि कहां एक गुमनाम गांव से उठकर मैंने हिंदी का अभ्यास किया. हमारे देश की एक राष्ट्र भाषा तो होनी ही चाहिए. हिंदी तो है ही, लेकिन इस का प्रसार ज़्यादा होना चाहिए और हमें अपनी भाषा पर गर्व होना चाहिए. हमारे देश में इतनी भाषाएं हैं कि जितनी भी हम सीख पाएं हमारे लिए अच्छी हैं, क्योंकि किसी प्रांत की भाषा सीखने से उस प्रांत की संस्कृति का भी ज्ञान होता है. उदाहरणतया कत्थक नृत्य के बारे में हम पंजाबी बहुत कम जानते हैं. हम समझ सकें या नहीं, लेकिन इस शानदार नृत्य का लुत्फ़ हम भरपूर उठाते हैं. भाषा की बात चल निकली है तो हम कुछ भाषाओं में कविता लिख देते हैं. मैंने आपके ब्लॉग में एक कामेंट में लिखा था,
god willing, will try something,
आपकी नज़र पड़ गई और आपको इसमें कविता की झलक दिखी. आपने मुझे इसकी दूसरी पंक्ति भी लिखने को कहा, ताकि अनमोल वचन बन जाए. मैंने कोशिश की है, देखिए-
god willing, will try something,
who knows, something becomes everything !
फिर आपने पंजाबी और उर्दू में भी कुछ लिखने को कहा. भाई, हम तो कोशिश ही कर सकते हैं, सो की है,
जे मिलणा चाहे रब नाल, मन दियां अखां खोल बंदिया,
रब मिलण लई तैयार बैठा है,
उसदे बिना तूं कुछ नैयो कर सकदा,
ऐवें ही तूं ते मगरूरी विच ऐठा है.
ਜੇ ਮਿਲਣਾਂ ਚਾਹੇਂ ਰੱਬ ਨਾਲ, ਮਨ ਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਖੋਲ ਬੰਦਿਆ,
ਰੱਬ ਮਿਲਣ ਲਈ ਤਿਆਰ ਬੈਠਾ ਹੈ ,
ਉਸਦੇ ਬਿਨਾਂ ਤੂੰ ਕੁਛ ਨਹੀਓਂ ਕਰ ਸਕਦਾ,
ਐਵੇਂ ਹੀ ਤੂੰ ਤੇ ਮਗ਼ਰੂਰੀ ਵਿਚ ਆਕੜ ਦਾ ਹੈ।
उर्दू में,
रब की इनायत न होती तो हम कहां होते!
उसी की हिफ़ाज़त ने महफ़ूज़ रखा है.
رب کی عنایت نہ ہوتی تو ہم کہاں ہوتے !
اسے کی حفاظت نے محفوظ رکھا ہے .
कभी-कभी मुझे दुःख होता है, कि हम अंग्रेज़ी बोलकर अपने पढ़े-लिखे होने का सबूत देते हैं, यह सरासर गलत है. अपनी मातृभाषा पर हमें गर्व होना चाहिए. मुझे पुरानी बात याद आ गई, शायद पहले भी मैं लिख चुका हूं, मुम्बई से हमारे रिश्तेदार आये थे. एक महिला हरदम इंग्लिश में बात करती थी. हमारी बेटियां इंग्लैंड में जन्मी व पली-बढ़ी होने के बावजूद पंजाबी में बात करती थीं, क्योंकि हम ने बच्चों को पंजाबी सिखाई हुई थी. जब बेटियों की अंगरेज़ सखियां आईं, तो वे इतनी फर्राटेदार इंग्लिश बोलती थीं, कि मुम्बई से आई वह औरत चुप हो गई. फिर सुबह को उस औरत का पति आया और माफी मांगी, कि उन को शर्म आ रही है कि इंग्लैंड के बच्चे पंजाबी बोलते हैं और हम इंग्लिश बोल कर पढ़े-लिखे होने का सबूत दे रहे हैं. बात यह बिलकुल सही है कि मुझे हैरानी होती है कि ऐसा क्यों है? एक तरफ तो हम बहुत बातें करते हैं कि जब हमारे देश में विश्वविद्यालय थे, तब इंग्लैंड के लोग जंगलों में रहा करते थे, हम ने दुनिया को दशमलव दिया, और दूसरी तरफ हम अपनी भाषा को इतनी मान्यता नहीं देते. आखिर में मैं यह ही कहूंगा कि भाषाएं जितनी मर्ज़ी सीखें, लेकिन ‘पहले हिंदी’ का ज्ञान जरुरी है.
आपने कल के ब्लॉग में लिखा था-
वह कौम जिंदा रहती है, जिसकी भाषा जिंदा रहती है. इसलिए आइए हम सब मिलकर हिंदी भाषा का विकास करें-
हिंदी भाषा देश की शान,
इससे भारत बने महान,
अपनी भाषा अपनाएं तो,
बढ़े देश का मान-सम्मान.
मैं इससे सहमत हूं. अंत में मैं कहना चाहूंगा, कि हिंदी का ज्ञान जरुरी है. हिंदी का भरपूर विकास-प्रचार-प्रसार होना चाहिए. सबको समझ में आने वाली सरल हिंदी हमारे देश का गौरव बनेगी.
चलते-चलते
सरल हिंदी के प्रसार में फिल्मों ने भी बहुत योगदान दिया है, क्योंकि फिल्मों की भाषा बहुत सरल होती है, शायद यही कारण है, कि हमारी बेटियां भी कुछ-कुछ हिंदी समझ लेती हैं, बड़ी बेटी तो कभी-कभी टीवी सीरियल भी देख लेती है. आखिर में यह ही कहना चाहता हूं, कि भारत की एक भाषा हिंदी ही होनी चाहिए और वह भी सरल हिंदी.
गुरमेल भमरा
आदरणीय भाईसाहब ! आप जब भी किसी विषय पर लिखते हैं दिल खोलकर लिखते हैं । बचपन में पाठ्यपुस्तकों में हम लोग किसी महापुरुष का पत्र पढ़ते थे जिनसे कुछ अच्छे संदेश मिला करते थे लेकिन आपके पत्रलेखन ने तो गजब ढा दिया है । कुछ नहीं बहुत कुछ संदेश आपने दे दिया है । सभी विषयों पर चर्चा करने लगे तो एक ब्लॉग तैयार हो जाएगा । बस संक्षेप में इतना ही कि आपकी लेखनी के तलबगार और प्रशंसक तो एक बड़ा पाठकवर्ग तो था ही अब आपका विभिन्न भाषाओं का ज्ञान और उन भाषाओं में रचना लिखने की काबिलियत हमारे लिए प्रेरणा का विषय बन गया है । हिंदी भाषा हमारे देश को एक सूत्र में पिरोने का काम कर सकती है यदि इसका समुचित प्रसार ग़ैरहिन्दी भाषी राज्यों में ईमानदारी से किया जाए । बहुत सुंदर लेखन के लिए धन्यवाद ।
राजकुमार भाई , आप मुझे बहुत हौसला देते हैं .इस के लिए आप का आभारी हूँ . इस लेख में मैंने यह जताने की कोशिश की है किः अगर हम पंजाबी लोग हिंदी सीख सकते हैं तो दुसरे प्रान्तों के लोग क्यों नहीं सीख सकते . यह सही है किः जो हम अपनी मात्रभाषा में लिख सकते हैं वोह दुसरी भाषाओं में इतना नहीं लिख सकते, मसलिन जो जीवन कथा मैंने हिंदी में लिखी है, अगर पंजाबी में लिखता तो शायद पचास कडीया और लिख सकता था लेकिन किसी भी देश की अपनी एक राष्ट्र भाषा तो होनी ही चाहिए . हमारे देश में पंदरां से ज़ादा तो मेजर बोलीआं हैं और इस में भी इल्ग्ग इल्ग्ग डाय्लैक्त हैं, जितनी बोलीआं पढ़ सके अछि ही हैं लेकिन इस के लिए भी कोई कुछ नहि करता . उर्दू मैं बचपन में ही इस का अल्फ बे पढ़ा था .यहाँ आ कर उर्दू सीखने की कोशिश की और काफी सीख लिया .इस का फायदा मुझे यह हुआ की इंटरनेट पे उर्दू के पेपर या मैगज़ीन कुछ कुछ पढ़ लेता हूँ .पाकिस्तान के पेपर देखता हूँ किः वोह लोग हमारे खिलाफ किया बोलते हैं . हमारे देश में हमारी एक जुबां हो तो देश के किसी हिस्से में लोगों से घुल मिल सकते हैं, यही राष्ट्र भाषा का फायदा है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. आप का लेख हमें बहुत पसंद आया . आप ने ठीक ही कहा किः हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है और इस का परचार परसार बहुत होना चाहिए क्योंकि अपनी भाषा के बगैर कोई राष्टर नहीं .
लीला बहन , हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यावाद .