मन में उमड़ते हुए ख्यालों को,
देख जमीं पर पड़े निवालों को,
कलम अपने आप चल पड़ी।
निवालों को देख जागी आस,
भोजन मिलेगा आज खास,
देख रही मैं चुपचाप खड़ी।
छोटे छोटे हाथों से उठाये,
फिर मुंह की तरफ बढ़ाये,
हाथ पकड़ लिया उसी घड़ी।
क्यों खाते हो झूठन को तुम,
हो गया वो एकदम गुमसुम,
आँखों से लगी आँसुओं की झड़ी।
बोला दुनिया करती है दिखावा,
भगवान को ही देती है चढ़ावा,
मैं भूखा, मूर्ति उसकी रत्नों जड़ी।
सुनकर बात हो गयी खामोश,
सोचा इस नादान का क्या दोष,
हम ही तो करते हैं बातें बड़ी।
अनाथालय में रहने को कहा,
बोला पांच साल मैं वहाँ रहा,
सुननी पड़ती थी डांट हर घड़ी।
मैंने कहा एनजीओ से मदद लो,
बोला पहले जान उनकी हद लो,
उनके लिए ये नाम कमाने की कड़ी।
उसने मुझे निरुत्तर कर दिया,
बातों से सबका पर्दाफाश किया,
हाथों में है सबके झूठ की छड़ी।
सुलक्षणा करने लगी विचार,
आये कैसे समाज में सुधार,
कैसे उतरे सिर से झूठ की गठड़ी।
©® डॉ सुलक्षणा