कविता
परिंदा आकाश में चाहे जितना ऊंचा उड़ ले
दाना चुगने उसे जमीन पर आना ही पड़ता है
आसमान में उड़कर तो तारे हाथ नहीं आते
मोती पाने के लिए गहरे समुद्र में जाना ही पड़ता है
चाँद चैदहवीं का अपने रूप पर जितना भी इतरा ले
अमावस में उसे अपना मुँह छिपाना ही पड़ता है
अहंकार में आदमी चाहे जितना भी ऊंचा उड़ ले
हकीकत के लिए उसे जमीं पर आना ही पड़ता है
तरुवर गगन छूने की लाख कोशिश कर ले
उसकी जड़ को रसातल में जाना ही पड़ता है
कोई चाहे कितने भी ऊंचे महलों में रह ले
शीश झुकाने प्रभु के दर पर आना ही पड़ता है
— जय प्रकाश भाटिया