गज़लें
लिखेंगे गीत वफाओं के , जरा सी शाम ढलने दो |
लिखेंगे गीत दुआओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||
मौसम के रंग कैसे थे , हवा का नूर कैसा था |
लिखेंगे गीत हवाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||
थीं रिमझिम बारिशें कैसी , लिपटी बादलों के संग |
लिखेंगे गीत घटाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||
फूलों की जवानी पे , फ़िदा भंवरे थे किस जानिब |
लिखेंगे गीत फिजाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||
तितलियाँ थीं व भंवरे थे , बहकी सी थी पुरवाई |
लिखेंगे गीत छटाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||
थोडा सा जाम छलक जाए , दर्दे दिल बहक जाए |
लिखेगे गीत सदाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||
थोडा सा सरूर चढ़ने दो , महफिल में नूर चढ़ने दो |
लिखेंगे गीत जफ़ाओं के , जरा सी शाम ढलने दो ||
— अशोक दर्द
सारे किस्से अब पुराने हो गये |
बुलबुलों के अब जमाने हो गये ||
उल्लू मिलकर खा गये हरियालियाँ |
खुश्क मौसम के बहाने हो गये ||
वोट को है सारी जनता देश की |
सियासतों को कुछ घराने हो गये ||
मूक सारे तर्क उनके हो गये |
भाषणों के जो दीवाने हो गये ||
रेत बजरी पेड़ पत्थर स्मग्लरी |
पैसों के यूं कारखने हो गये ||
स्वार्थ की अंधी नदी में डूब कर |
प्यार के सब गुम तराने हो गये ||
खेत को ही खा रहे है बाड़ जो |
उनके पहरों में खजाने हो गये ||
— अशोक दर्द