जीवन और आशा
जीने की उम्मीद में क्यों चाक दामन करते हो
हर दिन क्यों रोते हो उम्मीदें हजार करते हो
मायूसी से भर लिया क्यों दामन इस तरह
सोने सी जिंदगी में ही हजार बार मरते हो
महफ़िल तो लगती ही रहेगी हर रोज हुस्न की ,
सावन की उम्मीद में क्यों पतझड़ से रोज लड़ते हो ।
आईना बना लो जिंदगी को अपनी भुलाकर नफरत ,
क्यों जमाने की आग में खुशियों को दूर करते हो ।
इबादत को बना लो दस्तूर ऐ जिंदगी ,
ईश्वर की रहमत को क्यों दौर ऐ मुश्किल समझते हो
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़