मुक्तक/दोहा

“दो आँखों की रीत”

कह देती हैं सहज ही, सुख-दुख-करुणा-प्यार।
कुदरत ने हमको दिया, आँखों का उपहार।।

आँखें नश्वर देह का, बेशकीमती अंग।
बिना रौशनी के लगे, सारा जग बेरंग।।

मिल जाती है आँख जब, तब आ जाता चैन।
गैरों को अपना करें, चंचल चितवन नैन।।

दुनिया में होती अलग, दो आँखों की रीत।
होती आँखें चार तो, बढ़ जाती है प्रीत।।

पोथी में जिनका नहीं, कोई भी उल्लेख।
आँखें पढ़ना जानती, वो सारे अभिलेख।।

माता-पत्नी-बहन से, कैसा हो व्यवहार।
आँखें ही पहचानतीं, रिश्तों का आकार।।

सम्बन्धों में हो रहा, कहाँ-कहाँ व्यापार।
आँखों से होता प्रकट, घृणा और सत्कार।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है