विसर्जन
विसर्जित कर आई हूँ
वो मोह जिससे बेहद प्रेम से तुमसे जोड़ा था
वो माया जो तुम्हारी अनुभूति क्षण क्षण कराती थीं
वो लालसा तुम्हारे प्रेम की
वो आदत तुम्हारे प्रतीक्षा की
वो खेल तुम्हारे बिन बात के रूठ जाने की
वो कोशिश तुम्हें मानने की
वो हठ तुम्हें खुश देखने की
वो सपने तुम्हें महान देखने की
वो क्रोध कुंठा तुम्हारे तिरस्कार से मिली
वो दिन रात अंतर्द्वन्द्व को विसर्जित कर आई हूँ
हाँ वह खींच तान के रिश्ते को मैंने ही
शायद सिर्फ मैंने ही दोनों छोरों से पकड़ कर रखा था
उसे विसर्जित कर आई हूँ
सालों पहले भी किया था
थोड़ी सी मानसिक शांति के लिए
अपने हर इच्छाओं को विसर्जित
किंतु शायद कुछ अंश शेष रह गए थे
पूर्ण रूप से घनीभूत न हो सके थे
अवचेतन मन में एक चिंगारी सी दबी थी
तुम्हारे हवा देते ही मेरी इच्छाओं लालसाओं की
ज्वालामुखी फट आई थीं
उसके लावा मे मान सम्मान स्वाभिमान
सबकुछ भस्म कर के भी मिला
वह ही मानसिक तनाव क्लेश तुम्हारे उपेक्षा
वह ही आँसू वेदना असहनीय पीड़ा
चलों आज मैं वह नकारात्मकता का अंधकार विसर्जित कर आई हूँ
जानती हूँ कि यह सरल नहीं
लेकिन प्रयत्न किए बिना पराजित भी कैसे हो
— अर्पणा संत सिंह