जो सच था
यह मेरी नादानी थी या मेरा मोह ;
बरसों डूबने के बाद ….,
देखा तो ,
मेरे तन मन पर कुछ धुल-कनो के सिवाय
कुछ नहीं था ;
मैंने तो सोचा था ,
इसमें डूब कर मेरा सारा मैल उतर जायेगा ;
जीना सार्थक हो जायेगा ,
रेत के समुंदर को मैं पानी का समुंदर
मानता रहा
मैंने फिर देखा तो ,
रेतीली लहरों पर कुछ मेरे पदचिह्न,
शेष थे बचे हुए ;
परन्तु …..,
वो भी तो क्षणिक ही थे ,
मिट गये अगले ही क्षण
जब दूसरे राहगीर उस राह गुजरे ,
तब मेरे पदचिह्न रौंद उनके पदचिह्न
उभर आये थे वहां उन रेतीली लहरों पर ,
मैं बरसों तक रेत के समुन्दर में
अपने खोये बरस और बनाये पदचिह्न ढूढता रहा ,
मगर वास्तव में कुछ धुल कणों के सिवाय कुछ नहीं था मेरे पास ||