“उल्लू जी का भूत”
दुनियाभर में बहुत हैं, ऐसे जहाँपनाह।
उल्लू की होती जिन्हें, कदम-कदम पर चाह।।
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उल्लू का होता जहाँ, शासन पर अधिकार।
समझो वहाँ समाज का, होगा बण्टाधार।।
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खोज रहें हों घूस के, उल्लू जहाँ उपाय।
न्यायालय में फिर कहाँ, होगा पूरा न्याय।।
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दिनभर जो सोता रहे, जागे पूरी रात।
वो मानव की खोल में, उल्लू की है जात।।
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जगह-जगह फैला हुआ, उल्लू का आतंक।
कैसा भी तालाब हो, रहता ही है पंक।।
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सत्ता के मद-मोह में, बनते सभी उलूक।
इसीलिए होता नहीं, अच्छा कभी सुलूक।।
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बैठा जिनके शीश पर, उल्लू जी का भूत।
आ जाता है खुद वहाँ, लालच बनकर दूत।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)