दिल्ली जीती – मरती है
कल तक माता के आँचल में, बैठ सभी सुख पाते थे ।
भूखे नंगे लावारिस भी, जीवन जीने आते थे ।।
कभी वृक्ष रूपी हड्डी को काटा, काम किया अपना ।
अपने सपनों के चक्कर में, जला दिया माँ का सपना ।।
किन्तु आज कुहरे में लिपटी, दिल्ली आहें भरती है ।
अपने ही बच्चों के कारण, दिल्ली जीती – मरती है ।।
माता यमुना के पानी में, कालिय गरल मिलाया था ।
निर्मल करने हेतु कन्हैया, बाल रूप धर आया था ।।
कालिय नाग बने लाखों जन, जल को दूषित करते हैं ।
आते नहीं कन्हैया, कालिय नाग प्रदूषण भरते हैं ।।
निर्मल करने के ठेके में, केवल जेबें भरती हैं ।
और गंदगी में यमुना माँ, दिल्ली जीती – मरती है ।।
धनपशु होकर फैक्टरियों में, ईंधन झोके जाते हैं ।
लात मारकर सकल सुरक्षा, नियम तोड़ इठलाते हैं ।।
रक्ष्य कवच ओजोन पर्त नित, छिन्न – भिन्न होती जाती ।
पराबैंगनी किरणें तन को, नोच नोचकर झुलसाती ।।
दिल्ली का अम्बर रोता है, रोती प्यारी धरती है ।
जहरीली गैसों में घुटकर, दिल्ली जीती – मरती है ।।
बुर्ज खड़े नालों के ऊपर, बही झोपड़ी नालों में ।
पर्यावरण सचेतक हैं सब, सिंह शशक की खालों में ।।
जलसों औ त्यौहारों में जो, धूम – धड़ाके होते हैं ।
वायु, भूमि, जल, ध्वन्य, रसायन, में जीवन को खोते हैं ।।
कभी गर्जती थी दिल्ली, अब आँसू बनकर झरती है ।
भींगी बिल्ली के जैसे ही, दिल्ली जीती – मरती है ।।
दिल्ली अपनी मर्यादा है, दिल्ली अपनी थाती है ।
यह अतीत की पावन गाथा, आजादी परिपाटी है ।।
अगर प्रदूषण मिट जाये तो, इसकी छटा निराली हो ।
हो दिल्ली दिलवालों की फिर, हर भूखों की थाली हो ।।
अपनों के कर्मों से घायल, नहीं गैर से डरती है ।
ढेर बनी कूड़े की दिल्ली, दिल्ली जीती – मरती है ।।
अब तो जागो वीर सपूतों, धर्म धरा के अनुयायी।
बड़ी – बड़ी डिग्री के धारक, संत सुकवि शिक्षक भाई ।।
नेता नायक स्वामी सेवक, कर्मकार अफसर भंगी ।
सुन लो अर्ज़ मातु की वरना, होगी जीवन की तंगी ।।
चलो शपथ खायें माता की, जो सारे दुख हरती है ।
‘अवध’ पुत्र का फर्ज निभाओ, दिल्ली जीती – मरती है ।।
अवधेश कुमार ‘अवध’
9862744237