सामाजिक

लेख– जनता के पैसे को कबतक व्यर्थ में उड़ाएंगे, लोकतांत्रिक परिपाटी के लोग?

समाज के वंचित तबके को उसका दाय आज़ादी से आज तक प्राप्त हुआ। नहीं, फ़िर ऐसे में सामाजिक समरसता और समानता कहाँ से आ सकती है? आज के समय में देश की क्या स्थिति है, वह सभी को दृष्टिगोचर हो रही है। दो राज्यों में चुनावी सरगर्मी तेज है। जिसमें कोई अपनी जमीं बचाने की फ़िराक़ में है, तो विपक्षी पार्टी अपने लिए नई जमीं तलाश रहीं हैं, या यूँ कहे डूबते को तिनके का सहारा वाली स्थिति विपक्ष की हो गई है। ऐसे में मीडिया भी तूल मात्र सियासी मुद्दों को दे रहा है। तो आज बात लीक से हटकर होगी। क्या है देश की स्थिति और सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक वातावरण। अभी बीते दिनों बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के सुरक्षा दस्ते में कटौती क्या की गई, उनके पुत्र की जुबां ने राजनैतिक नैतिकता को ताक पर रख दी। ऐसे में बात आम आदमी और नेताओं के बीच पनपते गैरबराबरी और सामाजिक स्थिति का विश्लेषण करना काफ़ी जरूरी हो जाता है। संविधान सभी लोगों को बराबर मानता है। समानता की बात करता है। ऐसे में जब असमानता की नदी समंदर में बदल जाए, फ़िर जन्म बहुतेरे सवाल लेते हैं। क्या आजतक आवाम को आर्थिक समानता मिल पाई? क्या देश में सामाजिक समरसता की भावना निर्मित हो गई? उत्तर सभी को पता। 27 से 32 रुपए के बीच ग़रीबी की परिभाषा बदलते भारत में भी गढ़ी जाती है। अपराध कितने समाज से कम हुए, इससे कोई जानता न हो। यह कोई कह नहीं सकता। फ़िर मात्र क्या लाल बत्ती हटा देने से वीवीआईपी और वीआईपी व्यवस्था पर सीलबंद का ठप्पा लग सकता है, और समाज में सुरक्षा का माहौल बन सकता है। कहना मुनासिब न होगा।

एक वकील द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पूछा कि नेताओं को पुलिस सुरक्षा मुहैया करने पर देश के करदाताओं का धन खर्च करने की क्या जरूरत है। मुख्य न्यायाधीश मंजुला चेल्लुर और न्यायमूर्ति एमएस सोनक की खंडपीठ का यह प्रश्न आज के वक़्त में पूरे देश की आवाम को अपने राजनीतिक दलों से पूछना चाहिए, कि क्या वर्तमान में नेताओं के लाव-लश्कर में तैनात बल उनका सामाजिक और व्यक्तिगत रौब या फ़िर प्रतिष्ठा का सवाल बनकर रह गया है? जब विदेशों में उदाहरण मिलते हैं, कि वहां के सियासतदां कम सुरक्षा के घेरे में रह सकते हैं, फ़िर हमारे देश के नेता क्यों नहीं? दिखावे के लिए हमारे देश की राजनीति ने लाल बत्ती त्याग दिया, लेकिन आम-आवाम के पैसे पर सामाजिक रौब और प्रतिष्ठा दिखाने का क्या अर्थ, जब लोगों की सुरक्षा पर पुलिस बल की ही कमी हो। इसके साथ देश के नेताओं की फ़ौज इतना भी निर्धन नहीं जो अपनी सुरक्षा के लिए अपने कुछ गैर-सरकारी लोगों को नियुक्त न कर सके। फ़िर देश के नेताओं को फ़िक्र आवाम को भय मुक्त समाज देने की होनी चाहिए।

खंडपीठ ने यह भी कहा, कि जिन नेताओं को पुलिस सुरक्षा की जरूरत है, वे पार्टी फण्ड से भी लोगों को अपनी सुरक्षा में तैनात कर सकते हैं। फ़िर देश की राजनीति इस दिशा में क्यों नहीं बढ़ती, जब उनको लोकतंत्र में अपनी जान खतरे में ही लगती है। वैसे जनता के सेवक को अपने ही देश में शायद डर कम सामाजिक प्रतिष्ठा बनाने का विषय बन गया है, लाव-लश्कर के साथ चलना। तो इंतजाम भी खुद करना चाहिए। जनहित याचिका के मुताबिक महाराष्ट्र पुलिस के करीब 1000 कर्मी प्राइवेट लोगों को सुरक्षा मुहैया करने के लिए तैनात हैं। ऐसे में जब देश का संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है, उस स्थिति में वीआईपी संस्कृति ज्यादा हावी क्यों दिखती है? मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वर्तमान में देश के भीतर लगभग वीआईपी की कुल संख्या पांच लाख 79 हज़ार के क़रीब है, जबकि ब्रिटेन में यह संख्या 84, पड़ोसी देश चीन में लगभग 425, फ़्रांस में 109 , जापान में 125, ऑस्ट्रेलिया में 205, अमेरिका में 252, साउथ कोरिया 282 और रूस में 312 है। ऐसे में सवाल यही क्या हमारा देश इन देशों से ज़्यादा आर्थिक सम्पन्न है, जो जनता के पैसों पर नेताओं को सुरक्षित करने में और देश के लोगों को अपराध के अंधेरे में रहने को मजबूर कर रहा है।

ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च ऐंड डिवेलपमेंट की रिसर्च के मुताबिक देश के लगभग 20 हजार वीआईपी और वीवीआईपी की सुरक्षा में प्रत्येक एक के लिए औसत तीन पुलिसकर्मी तैनात हैं, जबकि 663 आम लोगों के लिए देश में मात्र एक पुलिसकर्मी है। जिसके अपवाद स्वरूप लक्षद्वीप देश का अकेला संघशासित प्रदेश है जहां किसी भी वीआईपी की सुरक्षा में पुलिसकर्मी तैनात नहीं हैं। वहीँ बिहार में 3200 वीआईपी की सुरक्षा के लिए 6248 पुलिसकर्मी तैनात हैं। इसके इतर अगर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक इस वक्त देश में 19.26 लाख पुलिसकर्मी हैं। इनमें से 56,944 पुलिसकर्मी लगभग 20,000 लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात हैं। दूसरी तरफ देश में 2015 के मुकाबले 2016 में 13.6 फ़ीसद अपराध की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। साथ ही साथ देश में लगभग पांच लाख से अधिक पुलिस पद ख़ाली पड़े हैं। ऐसे में पुलिसबल की सख़्त जरूरत कहाँ है, यह हमारी नीति-नियंत्रण करने वाले नेताओं को समझ क्यों नहीं आ रहा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896