ग़ज़ल
कितने बदल गए यहाँ, हालात इन दिनों
बिकने लगे बाज़ार में, जज़्बात इन दिनों।
मासूम की निग़ाह में, सैलाब देखकर
होती नहीं ज़मीन पर, बरसात इन दिनों।
फ़सले-अमन को बोने का है, क़ायदा नया
वो बाँटते हैं मौत की, सौग़ात इन दिनों।
नफ़रत ही मिल रही हो, ज़माने से जब मुझे
कैसे लिखूँ मैं प्यार के, नग़मात इन दिनों?
सुनकर वो माँ की कोख से, बिटिया की बानगी
डरते हैं लोग देखकर, बारात इन दिनों।
पहले तो बिछा देते थे, पलकों को राह में
देते नहीं ‘शरद’ का भी, वो साथ इन दिनों।
— शरद सुनेरी