लखनऊ के नाम एक ग़ज़ल
जाने हो कब मयस्सर दीदार लखनऊ का
इकरार लखनऊ का, इसरार लखनऊ का
एहसास उनको क्या हो शाम ए अवध की जन्नत
देखा नहीं जिन्होंने, बाजार लखनऊ का
किसको खबर कि हमने कैसे गुजारे ये दिन
छाया था रुह पर वह गुलजार लखनऊ का
एक मोड़ पर किसी से मिलने की बेकरारी
याद आया हमको वह दर हर बार लखनऊ का
उनको खबर ही क्या हो क्या गम ए लखनऊ है
जिनको हुआ नहीं है आजार लखनऊ का
हर पल किसी के आने का इंतजार करना
मुझको रुला गया है, इजहार लखनऊ का
कहने को आ गए हम इक अजनबी शहर में
लाए हैं साथ अपने हम प्यार लखनऊ का
जो हमको भूल बैठे उनको बता दे कोई
हम ख्वाब देखते हैं, हर बार लखनऊ का
माना के इस चमन में, हरसू बहार ही है
नाजुक यहां के गुल से, हर खार लखनऊ का
— मनोज श्रीवास्तव