दिवाली कैसे मनाऊँ
दिवाली कैसे मनाऊँ
दीया तो बना लिया
ईश्वर के निशुल्क दिये
मिट्टी और पानी से
इसमें तेल कहाँ से लाऊँ
तेल बीन
सर के बाल चिपक गये
तन में चिकनाई नहीं
बाती कहाँ से लाऊँ
कपड़े जो फटे है
उससे तन को ढकते हैं
चिंगारी कहाँ से लाऊँ
न खेत है न खलिहान है
पिता जी असहाय है
उनका जीवन ही
मेरे जीने का पर्याय है
माँ की ममता ही रोटी है
बहन का स्नेह ही
जीने की आस है
कभी कभी
भूखे पेट सोना पड़ता है
विस्तर पर लेटे हुए
रोना पड़ता है
हर रोज पहली किरणें
नजर आती है
उसके साथ
बाजारों में
आँखों के सामने
सब कुछ दिखाई देता है
अच्छी अच्छी चीजें
मेरे जीवन मात्र के लिए
महत्वपूर्ण होते हैं
लेकिन उसपर
मेरा अधिकार नहीं होता
क्योंकि उन्हें नष्ट होना है
किसी के पेट के लिए नहीं
बल्कि खेल के लिए
मौज मस्ती के लिए
शायद यह मेरे लिए
दिवास्वप्न होते हैं।
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@रमेश कुमार सिंह ‘रुद्र’