सदाबहार काव्यालय-4
नज़्म
ज़रा फासले से रहा करो
जो भी दिल में है वो कहा करो
कभी तुम में तुम भी दिखा करो
जो है लफ्ज़ लफ्ज़ के दरमियान
उस अनकही को सुना करो
ज़हन को अपने रिहा करो
ज़रा फ़ासले से रहा करो.
जो नहीं मिला वो क़रीब था
जो मिला बहुत ही अजीब था
ये जो मिल गया तो करम समझ
जो ना मिल सका वो नसीब था
यूं ही ज़िंदगी को रवां करो
ज़रा फ़ासले से रहा करो.
जो ना खुल सके वो किताब क्या
ये गुनाह क्यूं वो सवाब क्या
क्यूं ये खेल दुनिया में चल रहा
तेरे मेरे बीच हिसाब क्या
ये वहम है इसको फ़ना करो
ज़रा फ़ासले से रहा करो.
अंकित शर्मा’अज़ीज़’
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