वोट
देखा होगा जिक्र हुआ है
गरीबों का एक महीना
बड़े-बड़े मंच सजाए गए
बड़े बड़े भाषण दिए गए
बड़े बड़े वादे किए गए
पता नहीं कितने गरीब पहुंच पाए
रैलियों में ,आंदोलनों में
सुनने के लिए बस ,घोषणापत्र !!
अब 5 साल फिरेंगे वो अपनी
मुसीबतों का पर्चा बनाकर
सरकारी दरवाजों पर
सियासत का मुद्दा सबसे बड़ा ये है
कि कौन कितना रिझा पाता है वोटों को
आखिरकार इंसानों में नहीं
उनकी गिनती वोटों में होती है
वोट कागज का होता है
कागज अपनी समस्या बता नहीं पाता
अगर कभी चुनाव आयोग
इंसानों में गिनने लगेगा
तो शायद नेता समझ पाए
कि समस्या कहां है
मूक बधिर होकर अब सत्ता का लुफ्त उठाएंगे
जिन्होंने लुभाया था सबसे ज्यादा वोटों को