उस रोज़ दिवाली होती है
जब मन में हो मौज-बहारों की ,
चमकाए चमक सितारों की ,
जब खुशियों के शुभ घेरे हों
तन्हाई में भी मेले हों
आनंद की आभा होती है ,
उस रोज़ दिवाली होती है.
जब प्रेम के दीपक जलते हों ,
सपने जब सच में बदलते हों ,
मन में हो मधुरता भावों की ,
जब लहकें फसलें चावों की ,
उत्साह की आभा होती है ,
उस रोज़ दिवाली होती है.
जब प्रेम से मीत बुलाते हों ,
दुश्मन भी गले लगाते हों ,
जब कहीं किसी से वैर न हो ,
सब अपने हों कोई ग़ैर न हो ,
अपनत्व की आभा होती है ,
उस रोज़ दिवाली होती है.
जब तन-मन-जीवन सज जाए ,
सद्भाव के बाजे बज जाएं ,
महकाए खुशबू खुशियों की ,
मुस्काए चंदनिया सुधियों की ,
तृप्ति की आभा होती है ,
उस रोज़ दिवाली होती है.
आदरणीय बहनजी ! सचमुच जब आनंद की आभा होती है उस रोज दीवाली होती है । कहा भी गया है मन के हारे हार है , मन के जीते जीत ,। मन ही सभी क्रियाओं का कारक है और जब मन में मौज हो , मन खुश , सुखी व प्रफुल्लित हों तभी कोई त्योहार संभव है । इसी भाव को आपने बखूबी शब्दों में ढाला है । हमेशा की तरह एक और सुंदर सृजन के लिए आपका धन्यवाद !
सुन्दर रचना लीला बहन .
जिस दिन मन में बहारों की मौज-ही-मौज हो, उसी दिन त्योहार होता है.