द्वार दिल के
द्वार दिल के, तुमने पहरे तो बिठाए
अब अकेलापन तुम्हें ही, खा न जाए
बाँट सकता ख़ुशबुएँ गुलशन तभी जब
गुल हरिक परिवार का, खुल मुस्कुराए
पेड़ से माँगोगे फल यदि मार पत्थर
वो भी देगा फेंककर, सब चोट खाए
है नज़र कमज़ोर तो चश्मा बदल लो
ज्यों नज़र आएँ न दुश्मन, मित्र-साए
जाँच लो किरदार अपना भी जगत में
फिर रहे हो औरों पर, उँगली उठाए
यदि बुझानी प्यास है, तो पग बढ़ाओ
क्यों घड़ा, बढ़कर तुम्हारे, पास आए
पाओगे प्रतिदान में भी प्रेम-वाणी
बोल मृदु तुमने किसी पर, यदि लुटाए
पूछ लो बस एक बार, अपने ही मन से
किसलिए तुम ‘कल्पना’, मानव कहाए
-कल्पना रामानी