धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

आर्य और हिन्दू

ओ३म्

हम ऋषि दयानन्द के भक्त और अनुयायी अपने आप को आर्य कहते हैं जबकि हमारा जन्म एक पौराणिक परिवार में हुआ था और तब हम हिन्दू कहलाते थे। अभी भी हमारे मित्र व पड़ोसी हमें हिन्दू ही समझते हैं और हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनके इस व्यवहार से हमें किसी प्रकार की शिकायत व परेशानी नहीं होती। हमारे अधिकांश सम्बन्धी भी पौराणिक मत के मानने वाले होने से हिन्दू कहे जाते हैं। हिन्दू परम्पराओं के अनुसार हिन्दू कहे जाने वाले बन्धु पौराणिक रीति के व्रत व उपवास भी करते हैं। यदा कदा सत्यनारायण की व्रत व कथा आदि भी कराते व सुनते हैं। उनकी हरिद्वार में गंगा नदी में स्नान में भी आस्था है और वे वहां जाते भी हैं। अतः आर्य बन जाने पर भी हम हिन्दू समाज व समुदाय से एक अटूट बन्धन से जुड़े हुए हैं ऐसा हमें अनुभव होता है। एकता में ही शक्ति होती है। इस लिए भी हमें परस्पर जुड़े रहने में भी लाभ है और हमें जुड़े रहना भी है। यह सर्वविदित तथ्य है कि हमारे सभी विद्वान व नेता पौराणिक परिवारों से ही आर्यसमाज में आये और आर्यसमाज के सिद्धान्तों व मान्यताओं को पढ़कर व सुनकर व उन्हें उचित व सत्य मानकर आर्यसमाज वा वैदिक धर्म से जुड़े हैं। हम अनुभव करते हैं कि वृहद हिन्दू समाज से निकट सम्बन्ध होने पर भी हमारी मान्यतायें, सिद्धान्त व गुणों के कारण हम उनसे कुछ सीमा तक भिन्न भी हैं। आर्यों का प्रथम मुख्य गुण तो यह है कि वह अर्थात् हम ईश्वर के निराकार स्वरूप को मानते हैं जो सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान आदि गुणों वाला हैं। आर्यसमाज के दूसरे नियम में इसकी किंचित विस्तार से चर्चा है। ईश्वर में गुणों की कोई सीमा नहीं है अतः कई बार हम यह कहते हैं कि वह अनन्त गुणों से सम्पन्न है। ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में ईश्वर के 100 से अधिक नामों की व्याख्या की है। उनके अनुसार ईश्वर अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव वाला है। अवगुण ईश्वर में कोई नहीं है। ईश्वर का अवतार नहीं होता, न ही ईश्वर को अवतार धारण करने की आवश्यकता है। वह सृष्टि के अपने सभी कार्य यथा सृष्टि की उत्पत्ति, धारण व पालन तथा अवधि पूर्ण होने पर इसकी प्रलय अपने स्वभाविक ज्ञान व शक्ति से कर देता है। उसे इस किसी महद् कार्य के लिए भी अवतार आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। रावण व कंस का वध, राक्षसों, असुरों, दैत्यों, अनार्यों का वध, उनको प्राकृतिक व ईश्वरीय नियमों में रखना ईश्वर के लिए निराकार व सर्वव्यापक स्वरूप में रहकर करना अशक्य व कठिन नहीं है। वह रावण व कंस जैसे पापियों की आत्मा को उनके शरीरों से सरलता से पृथक कर उन्हें नष्ट व निष्क्रिय कर सकता है। अतः अवतार की हिन्दू मान्यता अविवेकपूर्ण व अवांछनीय प्रतीत होती है।

मूर्तिपूजा की चर्चा करें तो मूर्तिपूजा का आधार अवतारवाद है जो कि मिथ्या सिद्धान्त पर आधारित है। राम, कृष्ण, दुर्गा आदि को हमारे मध्यकालीन अल्पज्ञानी पूर्वजों ने अवतार कल्पित कर लिया और मूर्तिपूजा आरम्भ कर दी। उनको मूर्तिपूजा सरल लगी और निराकार का ध्यान उन्हें कठिन लगा होगा, ऐसा अनुमान होता है। मूर्तिपूजा का विधान वेदों में नहीं है। अच्छी बात यह है कि सनातनी पौराणिक बन्धु भी वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं। इसी कारण से आर्यसमाज और पौराणिक बन्धु आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। दूसरी बात यह भी है कि पौराणिक बन्धु हमारे सबसे निकट हैं। दोनों विचारों के लोगों में परस्पर विवाह आदि सम्बन्ध भी होते हैं। यह तो सभी मानते हैं कि आर्यसमाज से जन्मना जातिवाद समाप्त नहीं हुआ हैं। अधिकांश आर्यसमाजी वर्तमान में भी अपनी जन्मना जाति में ही अपनी सन्तानों के लिए वर व वधु की तलाश करते हैं और विवाह आदि सम्बन्ध स्थापित करते हैं। इसी कारण अनेक निष्ठावान आर्यसमाजी बन्धुओं को आर्यसमाजी परिवारों में उपयुक्त वर-वधु न मिलने पर पौराणिक बन्धुओं में ही विवाह करने पड़ते हैं। आजकल प्रेम विवाह भी जोरों पर हो रहे हैं। इससे आर्यसमाजी परिवारों में भी पौराणिक संस्कारों की वधुएं आती हैं और उनकी अपनी पुत्रियां पौराणिक परिवारों में जाती है। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सम्मुख हैं और पौराणिक व आर्यसमाजी परिवारों के बच्चे अपना निर्वाह भलीभांति कर रहे हैं। उनके निर्वाह का एक कारण यह भी होता है कि अधिंकाश लोग आध्यात्मिक न होकर भौतिकवादी होते हैं जिससे उनके सम्बन्धों में कुप्रभाव नहीं होता। मतभेद तभी होता जब एक आर्यसमाज की विचारधारा का कट्टर अनुयायी हो। ऐसी स्थिति में पौराणिक परिवार का सदस्य आर्यसमाज की विचारधारा में ढल जाता है। इसका कारण आर्यसमाज की पूजा पद्धति व यज्ञ आदि बुद्धिसंगत है और इसमें अनावश्यक व्रत उपवास का कष्टकारी व्यवहार नहीं होता है।

आर्यसमाजी आर्यसमाज की वैदिक पद्धति से ईश्वरोपासना करते हैं। कुछ दैनिक तो कुछ साप्ताहिक और कुछ पक्षान्त पर आने वाली अमावस्या या पौर्णमास पर हवन करते हैं। कुछ शायद नहीं भी करते होंगे। आर्यसमाज के लोग यदा कदा आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संगों में भी जाते हैं। परिवार का मुख्य व्यक्ति व कुछ सदस्य सत्यार्थप्रकाश व वेद आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय भी करते हैं। आर्यसमाज का साहित्य बहुत कम बिकता है इससे अनुमान लगता है कि स्वाध्यायशील लोगों की संख्या आर्यसमाज में सीमित ही है। यदि कोई प्रकाशक किसी शीर्ष व प्रमुख विद्वान का कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी प्रकाशित कर दे तो उसकी एक हजार प्रतियों के विक्रय होने में वर्षों लग जाते हैं। इसी से स्वाध्याय की प्रवृत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। बहुत से मित्रों को तो पुस्तक संग्रह का शौक होता है। सभी लोग अपने संग्रह की सभी पुस्तकों को पढ़ नहीं पाते। कुछ आर्य बन्धु ही अपने संग्रह की सभी पुस्तकों को पढ़ पाते होंगे? अतः आर्यसमाज में स्वाध्यायशील लोगों की संख्या कम है परन्तु यह अन्यों से अधिक कही जा सकती है। कुछ आर्यसमाजी विचारधारा के लोग टंकारा, उदयपुर, अजमेर में होने वाले ऋषि बोधोत्सव, सत्यार्थप्रकाश महोत्सव व ऋषि मेले में जाते हैं। इन्हें सक्रिय आर्यसमाजी माना जा सकता है। अधिक आयु के लोग इनमें अधिक होते हैं और युवावस्था के लोग कम। इन सब बातों से अनेक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। ऐसे सभी लोग आर्य व आर्यसमाजी हैं जो वैदिक धर्म के उन सिद्धान्तों को मानते हैं जिनका आर्यसमाज प्रचार करता है। महर्षि दयानन्द ने तो यह भी कहा है कि जो व्यक्ति आर्यावर्त में उत्पन्न हुआ व होता है वह आर्य है।

हिन्दू वह है जो वेदों में तो आस्था रखता है परन्तु वेदों के सत्यस्वरूप से पूर्णतः अपरिचित है। वह पण्डे, पुरोहित व कथावाचकों से पुराणों की अविश्वसनीय कल्पित कथाओं को सुनता है और वही उसकी स्मृति में दृण हो जाती हैं। उसी को वह धर्म मानता है। एकादशी, पूर्णिमा व अमावस्या सहित अनेक पर्वों पर व्रत व उपवासों की जो परम्परा हिन्दुओं में विद्यमान है वह पुराणों आदि के आधार पर प्रचलित हुई है, ऐसा अनुमान होता है। इनका कोई ऋषि-मुनि कृत शास्त्रों में उल्लेख वा आधार नहीं है। यह पूरे देश में इतनी लोकप्रिय हो गई हैं कि इनका आचरण ही हिन्दू धर्म बन गया है। आजकल हिन्दुओं के मुख्य धार्मिक व सामाजिक सिद्धान्त ऐसे नहीं है जो तर्क व युक्तियों की कसौटी पर कसे जा सके। हम समझते हैं कि ईसाई व मुसलमानों सहित बौद्ध, जैन व सिख आदि से इतर लोगों को हिन्दू कहा जाता है व वह हिन्दू हैं। आजकल अनेक कथावाचक हैं जिन्होंने हिन्दुओं में से बड़ी संख्या में अपने अपने अनुयायी बना रखे हैं। अनेक नवीन जीवित गुरुओं के यह अनुयायी हिन्दुओं की परम्पराओें को मानने के साथ साथ अपने गुरु द्वारा प्रचारित बातों को पृथक से ब्रह्म वाक्य स्वीकार करने के समान मानते हैं। कुछ दिनों बाद इन गुरूओं में से कुछ एक किसी अपराध में जेलयात्रा में भी चले जाते हैं और तब भी चेलों का तिलिस्म व अविद्या दूर नहीं होती। तब भी वह उन गुरुओं को चमत्कारिक ही मानते रहते हैं। हिन्दुओं में एक नास्तिक वा वामपंथी वर्ग ऐसा भी है जो ईश्वर व आर्य अर्थात् पौराणिक परम्पराओें को भी नहीं मानता। बंगाल में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है। यह विधर्मियों के हितों की बात अधिक करते हैं और वेद व पौराणिक मान्यताओं की बातें कम करते हैं परन्तु इनकी गणना हिन्दुओं मे ही होती है। इस प्रकार से हिन्दू ईश्वर के निराकार व साकार स्वरूप सहित दोनों स्वरूपों की पूजा करता है। उसने अनेक देवताओं की मूर्तियां बना रखी हैं जिन्हें वह पूजता है। उसे व उसके आचार्यों को इस बात से कोई सरोकार नहीं की उनकी पूजा सार्थक है वा निरर्थक। हिन्दुओं का का कोई एक देवता व परमात्मा न होकर उसके अनेक देवी व देवता हैं जिनकी वह पूजा अर्चना करता है जो तर्क व युक्ति् व वेदप्रमाण के अभाव में मिथ्या है। हिन्दू तीर्थों में भटकता है। गंगा स्नान आदि को धार्मिक कृत्य व मोक्ष प्राप्ति का साधन मानता है। सत्यनारायण व्रत कथा उनके लिए एक बड़ा धिर्मक अनुष्ठान होता है। वह किसी भी गुरु का शिष्य बनकर उसकी उचित अनुचित बातों को मानता व उनका आचरण करता है। कुछ ईश्वर व आत्मा के अविनाशी अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करते और हिन्दू समाज उन्हें भी हिन्दू मानता है। दक्षिण भारत में ऐसे लोग भी हैं जिनके शवों का दाह संस्कार न होकर उन्हें कब्र में दफना दिया जाता है। अतः हिन्दू की परिभाषा तय करना असम्भव प्रतीत होता है। मुख्यतः हिन्दू वह है जो पौराणिक मान्यताओं व आस्थाओं में आंखे बन्द कर विश्वास करता है।

आर्यसमाज वैदिक धर्म का प्रचार करता है। उसकी सभी विषयों की मान्यतायें वेदों पर आधारित हैं और तर्क व युक्तियों के आधार पर पुष्ट हैं। आर्यसमाज अपने कृत्यों का निर्धारण ज्ञान व विज्ञान के आधार पर तय करता है। वह ईश्वरोपासना इसलिए स्वीकार करता है कि इससे आत्मा शुद्ध होती है व इससे आत्मा को ज्ञान व बल प्राप्त होता है। यज्ञ इस लिए करता है कि इससे वायु शुद्ध होती है और शरीर निरोग व बलवान होता है। यज्ञ एक श्रेष्ठ  कर्म है जिसे करने से ईश्वर प्रसन्न होता है और यज्ञ करने वाले को आयु, विद्या, यश व बल आदि अनेक रत्न प्रदान करता है। इस प्रकार से आर्य वह है जो कि आर्यसमाज के सदस्य हैं। वेद और आर्य मान्यताओं में विश्वास करते हैं वह सभी आर्य कहे जाते हैं। आर्य व हिन्दुओं में मान्यताओं व सिद्धान्तों में कहीं समानतायें भी हैं और भेद भी अनेक है। आर्यसमाज मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि को सिद्धान्त विरुद्ध मानकर खण्डन करता है जबकि हिन्दू इन्हें मान्यता देता है। आर्यसमाज जन्मना जातिवाद को भी नहीं मानता जबकि आर्यों में भी यह प्रथा समाप्त नहीं हुई है परन्तु इसका समर्थन कोई आर्यसमाजी नहीं करता। बाल विवाह, विधवा विवाह आदि विषयों पर भी दोनों के विचारों में कुछ भिन्नता है।

आर्यों के सम्बन्ध में ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि आर्य श्रेष्ठ मनुष्यों को कहते हैं। दस्यु दुष्ट मनुष्यों को, देव विद्वानों को, अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस तथा अनाचारियों को पिशाच कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि वह इन शब्दों को इन्हीं अर्थों के अनुसार मानते हैं। हिन्दू शब्द के बारे में उनका कहना है कि यह शब्द मुसलमानों ने हमें दिया है जिसके अर्थ हमारे अपमान से जुड़े हुए हैं। हिन्दू का अर्थ उनके विचारों के अनुसार चोर, काफिर, नाटा, काले रंग वाला व निन्दनीय अर्थ में होता है। उन्होंने हिन्दू शब्द को केन्द्रित कर यह भी कहा है कि हम कर्म भ्रष्ट हुए तो हुए परन्तु हमें नाम भ्रष्ट कदापि नहीं होना चाहिये। आर्य शब्द को सभी हिन्दुओं को ग्रहण करना चाहिये और हिन्दू शब्द का त्याग करना चाहिये। जो ऐसा नहीं करते वह बुद्धिमान नहीं कहे जा सकते।

इस लेख में हमने आर्य व हिन्दू शब्द की चर्चा की है। आर्यसमाज के विद्वान इस विषय को अधिक स्पष्टता के साथ प्रस्तुत कर सकते हैं। कुछ विद्वानों ने इस विषय पर पुस्तकें भी लिखी हैं। हमने भी आज इसे अपनी चर्चा का विषय बनाया। हमारे विचार आपके सम्मुख प्रस्तुत हैं ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।