रजाई बनाम कंबल
पचीस दिसंबर पर वाकई ठंडी बहुत बढ़ जाती है। इधर महोबा में क्या है कि अभी तक कंबल ओढ़ने से काम चल जाता है। लेकिन इस पचीस दिसंबर को ऐसा लगने लगा कि अब यहाँ भी रजाई ओढ़नी ही पड़ेगी! सो घर से आते समय पिछले साल वाली रजाई उठा ले आए। वैसे तो, अपने देश में रजाई को सनातनी नहीं ही माना जा सकता क्योंकि रजाई शब्द में संस्कृतनिष्ठता नहीं है, रजाई शब्द विदेशी भाषा टाइप का शब्द प्रतीत होता है। अब चाहे यह देशी भाषा का शब्द हो या विदेशी भाषा का, हाँ, पैंतालीस डिग्री से पाँच-दस डिग्री पर उतरे तापमान के अंतर को यह रजाई ही पाटती है, ऐसे में रजाई को कौन दुतकारेगा!!
फिर भी न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि अपने देश में कंबल की ही परंपरा सनातनी है। इसीलिए सरकारी या गैरसरकारी दानवीर लोग गरीब रियाया टाइप के लोगों को कंबल ही वितरित करते हैं, जबकि रजाई को वितरित होने का यह गौरव प्राप्त नहीं है। रजाई तो ये दानवीर राजा टाइप के लोग स्वयं ओढ़ते हैं!! फिर रजाई को आखिर यह गौरव क्योंकर प्राप्त हो!! यह दुबला-पतला गरीब आदमी रजाई का बोझ उठा ही नहीं पाएगा..! और फिर गरीबों को रजाई क्यों ओढ़ाएँ? इन्हें राजा थोड़ी न बनाना है! वैसे भी अपना देश गरीबों और संन्यासियों का देश रहा है और इनके लिए कंबल का बोझ उठाना भी थोड़ा आसान होता है; मतलब कांधे पर रखे और चल दिए टाइप से! और यही नहीं, यहाँ के लोग नाराज होने पर “यह लै अपनी लकुटि कमरिया” कहकर कर सब कुछ छोड़कर चल देने वाले लोग होते हैं। सो, इन बेचारे गरीबों को कंबल बाँटना ही मुफीद होता है, ये इसी में जाड़ा काट लेते हैं। वहीं रजाई रजवाड़ों की परंपरा में शामिल है और अगर ऐसा न होता तो जयपुरिया रजाई प्रसिद्ध न होती। आखिर जयपुर रजवाड़ों के लिए ही तो चर्चित रहा है।
आपको बताएँ, यह जो लिख रहे हैं न, इसे भी रजाई में घुसकर लिख रहे हैं। अभी कुछ देर पहले जैसे ही महोबा पहुँचे तो रजाई का सुख लेने के लिए मन मचल उठा तो, फिर यही किए कि रजाई ओढ़कर रजाई पर ही लिखने लगे। वैसे एक बात है, रजाई ओढ़ लेने की गरमी में मन सरोकारी टाइप का नहीं रह जाता, केवल आत्मसुख या फिर राजसुख की अभिलाषा ही जागती है। इसीलिए रजाई ओढ़ने वाले कुछ-कुछ आलसी टाइप के भी होते हैं। इसी कारण कुछ लोग “खाए-पिए अघाए लोग आलसी होते हैं” कहते हुए रजाई ओढ़ने वालों से कुढ़न भी रखते हैं। खैर, लोग चाहे जो कहें, अगर आप भी रजाई ओढ़ रहे होंगे तो आप भी अलसियायेंगे ही! और सबेरे रजाई छोड़कर उठने का मन नहीं होगा। मैं तो सोचता हूँ, पता नहीं रजाई ओढ़ने वाले अपने इस आलस के चक्कर में देश का विकास कर भी पाते होंगे या नहीं! या फिर रजाई में घुसे हुए अलसियाये विकास के बारे में मनन ही करते रह जाते होंगे!! फिर विकास भाग कर जाएगा कहाँ! विकास तो ये कंबल ओढ़ने वाले कर-करा देंगे!!
हम तो, रजाई में राजसुख भोगते हुए अलसियाये हुए से अपनी लेखनी के आत्मसुख में मुग्ध हो सरोकारी होने की अनुभूति प्राप्त कर रहे हैं!!!