आत्मकेंद्रित होते युवा और समाज की आवश्यकता
इस तकनीकि के युग में आजकल के युवा इतने आत्मकेंद्रित हो गये है की उन्हें समाज या अपने आसपास के लोगों से मानो कोई सरोकार ही नही रह गया है| इसलिए आज घर के बुजुर्गों को अपने युवा हो रहे किशोरों से ये कहते सुनते है कि समाज में उठा बैठा करो, लोगों से मिला जुला करो, लोगों के यहाँ आया जाया करो थोड़े सोशल (सामाजिक) बनो | वास्तव में इसकी आवश्यकता क्या है ?
इसका कारण स्पष्ट है जो व्यक्ति समाज से जुडकर नही रहता वो कहीं न कहीं पिछड़ जाता है यह भी ये कहा जा सकता है कि समाज के अभाव में मनुष्य का जीवन संभव नही है | इसे ऐसे भी समझा जा सकता है | माना कि समाज एक सम्पूर्ण शरीर है और हम सब उसके अंग अवयव हैं। जिस प्रकार शरीर का अस्तित्व अंगों के सहयोग पर निर्भर है, उसी प्रकार सम्पूर्ण समाज का अस्तित्व भी मनुष्य के सहयोग पर निर्भर करता है |जिस प्रकार शरीर की सहायता से अंग और अवयव स्वस्थ रहते हैं उसी प्रकार मनुष्य की निस्वार्थता से समाज स्वस्थ रहता है। यह दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। पारस्परिक सहयोग के अभाव में इन दोनों का ही अस्तित्व शंका में पड़ जायेगा।
व्यक्ति का समाज के प्रति वही दायित्व है जो अंगों का सम्पूर्ण शरीर के प्रति। यदि शरीर के विविध अंग किसी प्रकार स्वार्थी अथवा आत्मास्तित्व तक ही सीमित हो जायें तो निश्चय ही सारे शरीर के लिए एक खतरा पैदा हो जाए। सबसे पहले भोजन मुँह में आता है। यदि मुँह स्वार्थी बन कर उस भोजन को अपने तक ही सीमित रख कर उसका स्वाद लेता रहे और जब इच्छा हो उसे थूक कर फेंक दे, तो उसके इस स्वार्थ का परिणाम बड़ा भयंकर होगा। जब मुँह का चबाया हुआ भोजन पेट को न जाएगा तो कहाँ से उसका रस बनेगा और कहाँ से रक्त माँस, मज्जा आदि? इस क्रिया के बन्द हो जाने पर शरीर के दूसरे अंगों और अवयवों को तत्व मिलना बन्द हो जाएगा। वे क्षीण और निर्बल होने लगेंगे और धीरे-धीरे पूरी तरह अस्वस्थ होकर सदा-सर्वदा के लिए निर्जीव हो जायेंगे। पूरा शरीर टूट जाएगा और शीघ्र ही जीवन हीन होकर मिट्टी में मिल जाएगा। यह सब अनर्थ, एक मुँह के स्वार्थ-परायण हो जाने से घटित होगा।
इसी प्रकार यदि मुँह स्वार्थी न बने पेट स्वार्थी बन जाए। अपने में आए हुए भोजन को अपने पास ही जमा करता रहे और उसे पचा कर रस प्रक्रिया को अवसर न दे तो भी यही अनर्थकारी स्थिति उत्पन्न हो जायगी। हाथ पैर, मन, मस्तिष्क आदि भी यदि स्वार्थी बन कर यह सोचने लग जाएँ कि मेरे श्रम का, उपार्जन का सारा लाभ तो मुँह और पेट को होता है तो मैं यों दूसरों के लिए क्यों कमाता और परिश्रम करता रहूँ? क्यों न चुपचाप बैठकर आराम करूं। तो भी वही अनर्थकारी स्थिति पैदा हो जाएगी।
हाथ-पैर काम नहीं करेंगे, सम्पूर्ण शरीर को भोजन देने में असहयोग करेंगे, तो एक तो जड़मूल से भोजन ही न मिलेगा और यदि किसी प्रकार मिल भी जाए तो उसको पकाने खाने आदि की प्रक्रिया न चल सकेगी। शरीर भूखा रहेगा, उसकी आवश्यकता पूरी न होगी, वह शिथिल और अस्वस्थ रहने लगेगा। ऐसी दशा में न केवल अन्य अंगों को ही हानि होगी बल्कि स्वयं स्वार्थी हाथ-पैर आदि भी निर्जीव हो जायेंगे। शरीर का कोई भी अंग यदि दूसरे अंगों के साथ स्वार्थवश असहयोग पर उतर आए तो सारे शरीर का ही अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा और तब इस सामूहिक अनर्थ से वह स्वार्थी अंग अथवा अवयव भी बचा नहीं रह सकेगा |
इसी प्रकार व्यक्ति का आत्मकेंद्रित हो जाना या उसकी स्वार्थपरता सामाजिक जीवन के लिए विष के समान घातक है। जो व्यक्ति सामूहिक दृष्टि से न सोच कर केवल अपने स्वार्थ, अपने व्यक्तिवाद में लगे रहते हैं, वे सम्पूर्ण समाज को एक प्रकार से विष देने का पाप करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्मा कभी भी शांत और सुखी नहीं रह सकती। शीघ्र ही उसका लोक तो बिगड़ ही जाता है, परलोक बिगड़ने की भूमिका भी तैयार हो जाती है। समाज में व्यक्तिगत भाव का कोई स्थान नहीं है। जिसने शक्ति, समृद्धि, सम्पन्नता अथवा पद प्रतिष्ठा के क्षेत्र में उन्नति तो कर ली है, किन्तु अपनी इन सारी उपलब्धियों को रखता अपने तक ही सीमित है, किसी भी रूप में समाज को उसका लाभ नहीं पहुँचता तो उसकी सारी उपलब्धियां, समृद्धियाँ और सफलताएँ हेय हैं। घर में यदि आभाव हो और किसी एक की अच्छी नौकरी लग जाए तो ये आवश्यक है की वो सबके पालन पोषण में सहयोग करे न की धन इकट्ठा होने पर उसका उपयोग केवल स्वयं करे और उस पर कुंडली मारकर बैठा रहे | ऐसे स्वार्थी व्यक्ति को कोई विवेकशील व्यक्ति तो आदर की दृष्टि से देखेगा नहीं, मूढ़ और मतिमन्द लोग भले ही उसको आदर, सम्मान देते रहें।
किसी मनुष्य के पास सारा धन, सारा वैभव और सारी विभूतियाँ जो भी आती हैं, सब समाज से ही आती है, यदि सर्वथा सत्य कहा जाए तो कहना होगा कि जिसके पास जो कुछ भी है, उसमें उस व्यक्ति का कुछ नहीं होता, वह सब समाज की ही सम्पत्ति होती है। मनुष्य जब पैदा होता है तब वह अपने साथ कुछ भी नहीं लाता और जब संसार से जाता है तब भी साथ कुछ नहीं ले जाता। समाज की सम्पत्ति समाज के ही पास छूट जाती है। जन्म लेने के समय बच्चा नितान्त असहाय एवं असमर्थ होता है। उसकी रक्षा और वृद्धि, परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में समाज द्वारा ही की जाती है। समर्थ होकर वह समाज की सहायता से उन्नति करता और समृद्ध बनता है।
यदि समाज उसके साथ सहयोग करना छोड़ दे तो शीघ्र ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। जो व्यक्ति समाज से पाई विभूतियों को उसके विकास एवं समृद्धि हेतु खर्च नहीं करता और जबरदस्ती उन्हें अपनी समझ कर अपने तक ही सीमित रख कर स्वार्थ परायण बना रहता है, तो निश्चय ही उसे चोर और कृतघ्न कहा जायेगा। इस कृतघ्नता के पाप से बचने के लिए मनुष्य को स्वार्थ नहीं परमार्थ को ही प्रश्रय देना चाहिये।
ऐसे ही वस्त्र, पुस्तकें मकान और अन्य सुविधा तथा आवश्यकता की सारी चीजें, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से पूरे समाज के सम्मिलित प्रयत्न तथा सहयोग का ही परिणाम होती हैं। जिसको खाने-पीने, रहने और पढ़-लिख कर विकास करने का अवसर मिला है उसे भूल कर भी यह न सोचना चाहिये कि उसने अपना विकास अपने अकेले दम पर कर लिया है।
व्यक्ति तथा समाज वस्तुतः एक ही वस्तु हैं। दोनों का विकास दोनों पर समान रूप से निर्भर है। कोई एक बात पूरे समाज से एक साथ कह सकना सम्भव नहीं, इसलिए वह उपायों द्वारा व्यक्तियों से ही कही जाती है। व्यक्ति को सामाजिक बनने को कहने का अर्थ यही है कि वह बात पूरे समाज से कही गई है। व्यक्ति यदि अपने आपको सुधार कर समाज अर्थात् दूसरे लोगों का हितैषी और सहयोगी बन जाय तो यह समझना चाहिये कि पूरा समाज ही वैसा बन गया। व्यक्तिवादी बन कर केवल स्वार्थ में ही लगे रहना असामाजिकता है। इससे व्यक्ति तथा समाज दोनों की हानि एवं अकल्याण होता है। इसी अमंगल को बचाने के लिए मनुष्य को स्वार्थी नहीं परमार्थी और व्यक्तिवादी से सामाजिकवादी बन कर लोकहित के काम करते ही रहना चाहिए।