बाल गीत बचपन फिर बेताब हो रहा
गुड़ की लैया नहीं मिली है,
बहुत दिनों से खाने को।
बचपन फिर बेताब हो रहा,
जैसे वापस आने को।
आम ,बिही ,जामुन पर चढ़कर,
इतराते बौराते थे।
कच्चे पक्के कैसे भी फल,
तोड़ तोड़ कर खाते थे।
मन फिर करता बैठ तराने
किसी डाल पर गाने को।
मन करता है फिर मुढ़ेर से,
कूद पडूं सरिता जल में।
आँख खोलकर खूब निहारूं,
नदिया के सुंदर तल में।
हौले- हौले हाथ बढ़ाकर,,
सीपी शंख उठाने को।
आँख बंद करता हूँ जब भी,
दिखते नभ् मैं कनकैया।
पेंच लड़ाने तत्पर मुझसे,
दिखते प्रिय बल्लू भैया।
बच्चे दौड़ लगाते दिखते,
कटी पतंग उठाने को।
— प्रभुदयाल श्रीवास्तव