समकालीन गीत
धुंध हो गया सारा जीवन,कुछ भी नज़र नहीं आता !
आशाएं अब रोज़ सिसकतीं,कुछ भी नज़र नहीं आता !!
बाहर भी है,अंदर भी है,
सभी जगह कोहरा छाया
न तुम सुधरे,न हम सुधरे,
कुछ भी संवर नहीं पाया
गीत पुराने कौन सुने अब,कुछ भी नज़र नहीं आता !
धुंध हो गया सारा जीवन,कुछ भी नज़र नहीं आता !!
व्यथित हो गया सारा आलम,
तनहाई बस हासिल है
वही आज है सबसे आगे,
जो सबसे नाक़ाबिल है
आंसू पी-पी वक़्त गुज़रता,कुछ भी नज़र नहीं आता !
धुंध हो गया सारा जीवन,कुछ भी नज़र नहीं आता !!
सबकी आंखें सूनी- सूनी,
लगता जैसे मातम है
उजियारा तो हुआ रेहन में,
फटने को कोई बम है
चैन नहीं इक पल भी हासिल,कुछ भी नज़र नहीं आता !
धुंध हो गया सारा जीवन,कुछ भी नज़र नहीं आता !!
— प्रो. शरद नारायण खरे