चाहो जो देश का हित
मिट्टी की सौंधी खुशबू,
जो गीत गा रही है,
उस गीत से वतन की,
मृदु गंध आ रही है.
मिट्टी के इन कणों से,
केवल बना न तन है,
सुख-दुख मिले इसी से,
इस से तरंगित मन है.
तारों की होती झिलमिल,
कुछ गुनगुना रही है,
इस गुनगुनाहट में भी,
आवाज देश की है.
ये झिलमिलाते तारे,
हमको बता रहे हैं,
स्वाधीनता संभालो,
गद्दार छा रहे हैं.
झरने की मीठी झर-झर,
कुछ तो सुना रही है,
यह झरझराती धारा,
सबको सिखा रही है.
चलते रहो निरंतर,
चाहो जो देश का हित,
अपना भला भी चाहो,
कल्याण देश का नित.
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