गीत/नवगीत

मधु गीति – कितनी कलियों को जगाया मैंने,

कितनी कलियों को जगाया मैंने,
कितनी आत्माएँ परश कीं चुपके;
प्रकाश कितने प्राण छितराये,
वायु ने कितने प्राण मिलवाये !

कितने नैपथ्य निहारे मैंने,
गुनगुनाए हिये लखे कितने;
निखारी बादलों छटा कितनी,
घुमाए फिराए यान कितने !

रहा जीवन प्रत्येक परतों पर,
छिपा चिपका समाया अवनी उर;
नियंत्रित नियंता के हाथों में,
सुयंत्रित तंत्र के विधानों में !

छुआ ज्यों यान ने चरण धरिणी,
मिट गया भेद गगन द्रष्टि का;
समष्टि का सुद्रष्टि वृष्टि का,
कला के आँकलन की भृकुटी का !

स्वरूपित होने या न होने का,
प्रकृति को छूने या न छूने का;
प्रभु के मर्म को सकाशे ‘मधु’,
जागरण पा लिये विश्व सपने !

 

— गोपाल बघेल ‘मधु’