सदाबहार काव्यालय-51
कविता
मानव बनकर तुम जी तो सके!
है नदी न अपना जल पीती, केवल औरों के हित जीती,
है प्यास बुझाती सब जग की, फिर भी न कभी होती रीती.
हैं वृक्ष नहीं फल खुद खाते, फलते हैं बस औरों के लिए,
ज्यों-ज्यों फलते झुकते जाते, मिट जाते वे औरों के लिए.
हर रोज़ सुबह सूरज आकर, किरणों का जाल बिछाता है,
इसमें क्या स्वार्थ कहो उसका? वह सब जग को दमकाता है.
हर शाम चंद्रमा आकर जो, शुभ शीतलता बिखराता है,
है कौन स्वार्थ बोलो उसका? वह सब जग को चमकाता है.
हैं फूल महकते क्यों बोलो? क्या उनमें स्वार्थ की गंध होती,
उनकी खुशबू सबके हित है, वे बिखराते मधु के मोती.
है पृथ्वी स्वार्थ-हीन सदा, अम्बर में स्वार्थ का नाम नहीं,
तारों के चमकने में हमको, लगता क्या स्वार्थ का काम कहीं?
मानव ही केवल वह प्राणी, जो स्वार्थ के कारण काम करे,
भाई-से-भाई जंग करे, फिर चाहे जिए वह चाहे मरे.
स्वार्थ पूरा करने को वह, कोई भी तरीका अपनाए,
हो कष्ट भले किसको कितना, पर अपना काम तो सध जाए.
वह कहता सब जग स्वार्थी है, धरती-नभ भी अपवाद नहीं,
फल-फूल-नदी-सूरज-चंदा, इनकी भी देता दाद नहीं.
पर जब तक स्वार्थ का यह पर्दा, मानव मन से न उठाएगा,
वह भला करेगा क्या सबका? अपना न भला कर पाएगा.
इस हेतु अरे ओ मानव तुम, छोड़ो स्वार्थ का साथ-संग,
मानव हो मानवता ओढ़ो, खुद दानवता रह जाए दंग.
पक्षी की तरह उड़ना सीखे, मछली की तरह तुम तैर सके,
है मज़ा तभी निज स्वार्थ छोड़, मानव बनकर तुम जी तो सके.
लीला तिवानी
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लीला बहन , मानव बनकर तुम जी तो सके!बहुत अछि रचना है .
जब हम किसी की प्रशंसा करते हैं,
तो उसके अच्छे कर्मों को ग्रहण कर लेते हैं,
उसी तरह जब हम किसी को दोष देते हैं,
तो उसके बुरे कर्मों को भी ग्रहण कर लेते हैं.