कैक्टस !
कैक्टस!
जानता हूँ तुम्हें बस फूलों की महक पसंद है,
पर मैं तो ठहरा साधारण सा कैक्टस !
जिसमें न महक है और न ही कोई आकर्षण ,
तुम्हें मैं नापसंद हूँ ,मेरा नाम भी तुम्हें पसंद नहीं !
क्योंकि इसमें गुलाब और रात रानी सी लचक कहाँ ,
अकेले रहने की आदत सी हो गई है मुझे !
तुम इतराओ खुद पे मुझे कोई गिला नहीं है ,
पर कभी अकेले में सोचना तुम ये भी ,
मैं भी कुदरत की देन हूँ और तुम भी ,
फिर क्यों उपेक्षा की नज़र से देखा जाता हूँ मैं !
हाँ ! मैं एक कैक्टस कुरुप सा काँटेदार साधारण सा ।
कामनी गुप्ता ***
जम्मू !