ज़िंदादिली
आज वसुधा जिस मुकाम पर पहुंच गई है, कि हर एक को उस पर गर्व होता है. वसुधा गर्व या कि कहिए घमंड से कोसों दूर रही है. उसके रहन-सहन में कोई तब्दीली नहीं आई है. उसके अतीत का हर पन्ना हर समय उसके समक्ष नर्त्तन करता है.
आज से साठ साल पहले वसुधा के सामने दो रास्ते थे- सबके तानों से हताश होकर घुटन भरी ज़िंदगी जीना, या फिर धैर्य से हर बाधा से पार पाना. वसुधा ने दूसरा रास्ता चुना था था. उस समय उसने अपने आप से वादा किया था, मामूली-से बुखार से अपनी पोलियो से लगभग निष्प्राण-सी हो गई बांईं भुजा को अपनी ज़िंदगी की घुटन का कारण नहीं बनने देगी, उसी वादे को अपना संबल बनाकर वह ज़िंदादिली से जीवन को खुशबहार बना देगी. उसी ज़िंदादिली ने वसुधा को सबका चहेता बना दिया है.
मां के मन की घुटन इन शब्दों में निकलती- ”वसु, तेरो के होएगो. कुण करेगो तेरे से ब्याह?”
वसु मां को तसल्ली देते हुए कहती- ”देखियो अम्मा, मेरो वर-घर ऐसो दमदार होएगो, कि सब बहिनें कहेंगी- ”वर होवै तो वसु जैसो.”
हुआ भी यही. अपनी विकलांगता को भुलाकर वसुधा उसी तरह पेड़ों पर चढ़ती-लटकती बड़ी हो गई. धैर्य और ज़िंदादिली उसके गहने थे. घर-बाहर के हर काम में सबसे आगे. उसके इन्हीं गुणों से प्रभावित होकर उसके ससुर ने उसकी विकलांगता को दरकिनार कर अपने आई.ए.एस बेटे से उसकी शादी करवा दी थी. वसुधा ने पहनने-ओढ़ने का तरीका ऐसा बनाया हुआ था, कि सहसा उसकी विकलांगता पर किसी की नज़र जाती ही नहीं थी. ससुराल वाले उसकी कार्यकुशलता और प्यार के मुरीद हो गए थे और पूरे शहर में वह नेक बहू के रूप में प्रसिद्ध थी. आज वह बड़ी शान से एम.एल.ए के गरिमामय पद पर आसीन थी.
वसुधा आज भी साहस के साथ निष्काम भावना से समाज-सेवा में जुटी हुई है. आज भी उसको बढ़-चढ़कर हर तरह के काम करते देखकर कोई नहीं कह सकता, कि वह जन्मजात दिव्यांग है.