शांति का वास
कोई समुद्र तट पर, इक शंख ढूंढता है,
हलचल भरे इस जग में, शांति को ढूंढता है.
थोड़ा-सा प्रयास करके, शंख को पा लिया है उसने,
शांति मिली यहीं पर, माना है ऐसा उसने.
मारा किसी ने कंकड़, हलचल हुई है जल में,
शांति भी खो गई है, छोटे-से उस पल में,
लहरें मचल रही हैं, सागर के नीले जल में,
सागर भी दे न सका जो, ढूंढें किसी महल में.
जंगल भी दे न पाया, शांति को पाएं कैसे?
किस जगल और कैसे मिले, कितने लगेंगे पैसे?
यह सोचकर उठा वह, पहुंचा किसी चमन में,
फूलों में उसको ढूंढा, ढूंढा उसे गगन में.
बाज़ार में भी पूछा, पूछा नगर-नगर में,
मंदिर में भी खोज आया, ढूंढा डगर-डगर में.
एकांत में जा बैठा, सब सोच छोड़कर वह,
मन शांत हो गया था, निष्पाप-निश्चल-निःस्पृह.
शांति बसी थी मन में, वह ढूंढता था बाहर,
वह ढूंढती उसको, उसको पता न था पर.
अब शोर है न हलचल, बस शांति ही का वास है,
जंगल हो चाहे दंगल, मन में उसी की सुवास है.
bahut sundar rachna lila bahan .
प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत सुंदर लगी. हमेशा की तरह आपकी लाजवाब टिप्पणी ने इस ब्लॉग की गरिमा में चार चांद लगा दिये हैं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
शांति का वास मन के अंदर ही होता है. एकांत में अंतर्मुखी होकर ही शांति को पाया जा सकता है.