प्यार की परिभाषा
प्यार क्या है ,क्या एक भीख है जो सबके सामने कटोरा लेकर खड़े रहने से मिल सकती है ?क्या प्यार को किसी की खुशामद करके प्राप्त किया जा सकता है ?कभी नहीं ।जिस प्रकार लाभ हानि यश अपयश सब कर्म के लिखे के अनुसार ही प्राप्त होते हैं ,उसी प्रकार प्यार और नफरत भी भाग्य के अनुसार ही मिलते हैं ।माँ बाप भाई ,बहन ,रिश्ते नाते ,सभी तो भाग्य से मिलते हैं ,फिर प्यार की अथाह चाह क्यों जीवन में विष घोलने लगती है ।सच्चे प्यार की खोज सिर्फ एक खोज ही है जो कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती । कुछ लोग जीवन में मिलते हैं ,दिलासा देते हैं और गुम हो जाते हैं । सच्चाई बहुत कड़वी होती है और हम सभी उससे भागने का असफल प्रयास करते हैं । पति पत्नी का रिश्ता भी तो इसी क्रम से गुजरता है ।एक दूसरे से अत्यधिक अपेक्षाएं दोनों को एक दूसरे से दूर कर देती हैं ।प्यार पैसे और शान शौकत का नाम नहीं ‘प्यार तो सिर्फ एक दूसरे से बिना शर्त के प्यार की उम्मीद रखता है ।खुद से ज्यादा अपने साथी की चिंता करना ,उसका ध्यान रखना प्यार का ही दूसरा रूप है । एक दूसरे को प्रताड़ित करना ,हर छोटी बात में दूसरे को नीचा दिखाना ,सिर्फ आँसू और दर्द ही देता है । 90%लोगों की नजरों में आज भी प्यार की परिभाषा सिर्फ सेक्स तक ही सीमित होती है ।रूहानी और मानसिक प्यार सिर्फ एक मजाक होता है उन लोगों के लिए ।जब एक पत्नी से लोगों को उम्मीद होती है कि वो यदि कहीं जा रही है तो पति को बताकर जाए तो क्या एक पत्नी को यही उम्मीद रखना शक की श्रेणी में गिना जाना चाहिए ।पति पत्नी ,दोस्ती रिश्ते नाते सभी सिर्फ विश्वास और प्यार से जुड़े होते हैं फिर उनमें अहम की भावना क्यों?प्यार का कोई मापदंड नहीं ,वो तो अथाह और निशुल्क होता है जो सिर्फ प्यार और प्यार ही मांगता है आँसूं और दर्द नहीं ।हर पल अपने साथी को रुसबा करके नीचा दिखाना सिर्फ अपने अहम को साबित करना है और कुछ भी तो नहीं ।
प्यार वो सच्चा आईना है
जो अपनी सूरत दिखाता है ।
वो क्या समझेंगे प्यार की कीमत ,
जिन्हें हर पल सिर्फ रुलाना आता है ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़