लघुकथा

उलझन

आज बाज़ार जाते समय अंकिता ने जैसे ही अपना पर्स उठाया, उसे दो दिन पहले का किस्सा याद हो आया.

उस दिन वह अपने पति के साथ कार में बाज़ार गई थी. किसी ख़ास चीज़ की तलाश में उनको ऐसी जगह जाना पड़ा, जहां कार की पहुंच मुश्किल होती, इसलिए कार एक मॉल में छोड़कर वे एक फोर सीटर में सवार हो गए. थोड़ा आगे आकर रास्ते में एक महिला भी अपनी 8-10 साल की बेटी के साथ फोर सीटर में बैठी और सामने वाली सीट पर बैठ गई. उसने इतनी बड़ी बेटी को सीट पर नहीं, बल्कि गोद में बैठाया. अंकिता हैरान हुई.

महिला के हाथ में एक मोटी बैनरनुमा चीज़ को ऐसे फैलाकर रखा, कि अंकिता को भी छूने लगी. अंकिता को यह भी अजीब लगा. थोड़ी देर में बेटी ने अपने पैर को ज़ोर से अंकिता के पैर पर रख दिया, अंकिता ने हल्का-सा विरोध ज़ाहिर किया. महिला ने इशारे से बताया, कि बेटी पागल है, उसे कुछ समझ नहीं आता, पता नहीं लगता. बेटी को इस बात का पता ही नहीं चला. इधर बौद्धिकता से संपन्न अंकिता उसकी बेटी की मानसिक हालत की और महिला की बेचारगी की उलझन में उलझी रही, महिला अपना काम करती रही.

अंकिता का पर्स ऐसा था, कि उसे खुद कोई चीज़ निकालने में ही 2-चार मिनट लग जाते. पहले चुंबक वाला फ्लैप हटाती, फिर इतनी बड़ी ज़िप खोलती, तब कहीं जाकर चीज़ निकलती, फिर ज़िप बंद करना, फ्लैप बंद करना आदि होता. महिला को तनिक भी देर नहीं लगी. उसने फ्लैप को खोले बिना, जाने कैसे, ज़िप को चीर दिया, अंदर की पॉकेट की ज़िप खोली और अंकिता के 80 रुपए पार कर दिए. अंकिता को इस बात का ज़रा-सा अहसास हुआ. उसने पर्स हटाकर देखा,  बाहर की ज़िप खुली बीच में से चिरी हुई, अंदर की ज़िप खुली हुई, रुपए नदारद. अंकिता क्या करती! रुपयों पर उसका नाम तो लिखा नहीं था. रुपए तो उसके ही होते हैं, जिसकी जेब में होते हैं. अपना गंतव्य आने पर अंकिता पति के साथ उतर गई.

वह मन-ही-मन सोच रही थी. वह ही तो कई बार लेखों में लिख चुकी है-

”हर दिन खास होता है. वह या तो कोई खुशी देकर जाता है या कोई सबक सिखाकर जाता है”.

आज अस्सी रुपयों में उसे सबक मिल गया था. उलझन उसे अब भी घेरे हुए थी.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

3 thoughts on “उलझन

  • लीला तिवानी

    80 रुपये खोने की उलझन के साथ अंकिता ने भविष्य में सावधान रहने का सबक भी सीखा था.

    • विजय कुमार सिंघल

      बहिन जी, ठीक इसीतरह मेरे साथ रिक्शे में बैठे आदमी ने मेरी पैंट की जेब काटकर लगभग 800 रु निकील लिये थे। उसने ऊपर एक बड़ा सा बैग रखा हुआ था। तब से मैं बहुत सावधान रहता हूँ।

      • लीला तिवानी

        प्रिय विजय भाई जी, हमारी भी यह खुद की आपबीती है इसलिए हमने इसे उजागर करने की बात सोची, ताकि अन्य लोगों को भी सबक मिल जाए. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

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