सामाजिक

लेख– बेटियां समाज में नहीं होगी, तो दुल्हन कहाँ से आएँगी?

बीते दिनों विश्व परिदृश्य पर तीन घटनाएं नियमित अंतराल पर घटित होती हैं। जिसमें से दो घटनाएं देश से तालुकात रखती हैं, और एक पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से। देश से सम्बंधित घटनाएं है। पहली देश में नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है, कि लड़कियों की संख्या लड़कों के सापेक्ष तीव्र गति से कम हो रहीं है। दूसरी और तीसरी घटना में काफ़ी समानता है, देश के भीतर 83 उम्र का बुजुर्ग देश में शादी रचाता है, तो पाकिस्तान में पूर्व खिलाड़ी इमरान खान तीसरी शादी को लेकर चर्चा में आते हैं। यहाँ दूसरी और तीसरी घटना में समानता तो है, लेकिन मानसिक स्तर पर नहीं। अगर बात राजस्थान के करौली जिले की करें, तो वहां का एक बुजुर्ग अपने से 53 वर्ष छोटी लड़की से शादी सिर्फ़ इसलिए करता है, कि उसे अपना कुल चलाने के लिए कुलदीपक चाहिए। संविधान में भले सभी को व्यक्तिगत स्वंतत्रता मिली है, कुछ भी कार्य करने की। जिससे देशहित और अन्य किसी की भावना को चोट न पहुँचे। पर ऐसे में सुखाराम बैरबा की शादी से एक प्रश्न यह उठता है, कि महिलाओं को उनका सम्मान आख़िर कब मिलेगा। आख़िर ये कैसी सामाजिक विडंबना है, कि महिलाएं जिस हक की हकदार हैं, वो क्यों नहीं मिल रहा।

इक्कीसवीं सदी में जब स्त्री पुरुषों से किसी क्षेत्र में पीछे नहीं, फ़िर भी क्यों किसी घर में नए नवेले मेहमान के आने से पहले यह इच्छाशक्ति क्यों जाग जाती है, कि किसी टेस्ट के माध्यम से पता चल जाए, लड़की होने वाली है, या लड़का। आज के दौर की यह कैसी अजीबोगरीब स्थिति है, एक ओर हम बेटी बचाओं, बेटी पढाओं अभियान का हिस्सा बन रहे हैं, दूसरी तरफ़ कन्याभ्रूण हत्याएं समाज में तीव्र गति से जारी है। इकोनॉमिक्स सर्वे 2017-18 ने जो आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, वो बहुतेरे सवाल ख़ड़े करते हैं। इस सर्वे के मुताबिक लड़कों की चाहत में लोग ज्यादा बच्चे पैदा कर रहें हैं। फ़िर सवाल यहीं, जब प्राकृतिक संसाधनों की खेप सिमित है, फ़िर लोगों की सोच क्यों नहीं बदल रहीं। लड़कियां लक्ष्मी का स्वरूप होती हैं, फ़िर सिर्फ़ लड़कों की चाहत के कारण क्यों जनसंख्या वृद्धि का वाहक समाज बनता जा रहा। इसी सर्वे का एक पहलू ओर भी है, जो समाज को काफ़ी चौंकाता है, जिसके मुताबिक देश में 2.1 करोड़ अनचाही लड़कियों का जन्म हुआ है। अब अगर इन अनचाही लड़कियों की संख्या को कुल लिंगानुपात में से घटा दिया जाए। तो देश में लिंगानुपात की क्या औसत बचेगी।

ये लड़कियां लड़कों की चाहत में अगर पैदा हुई, तो मतलब साफ़ है, समाज कन्याभ्रूण हत्या के कलंक से छुटकारा नहीं पा पा रहा, अपनी दकियानूसी सोच के कारण, औऱ लड़के की चाहत से देश तीव्र जनसंख्या वृद्धि का दंश भी झेलने को विवश है। ऐसे में जब हिन्दू धर्म मे लड़कियों को देवी, मुस्लिम धर्म में नेमत माना जाता है। साथ में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अधिक सहनशील और मां-बाप का ख्याल रखने वाली होती है, साथ में मानव समाज को बनाए रखने के लिए स्त्री-पुरूष दोनों की महत्ता बराबर है, फ़िर शिक्षित, प्रबुद्ध समाज यह सोच क्यों नहीं त्याग पा रहा, कि वंश सिर्फ़ लड़के ही चला सकता है। जब बड़े-बड़े और समृद्ध देशों का नेतृत्व महिलाएं कर सकती है, फ़िर उसके आगे वंश चलाना तो काफ़ी निम्न स्तर की बात है। लड़को की चाहत समाज के बुद्धिजीवी औऱ सम्पन्न समाज को छोड़ना होगा, तभी वे ग़रीब और अनपढों के लिए मिसाल बन सकते हैं। रही बात माता-पिता की बुजुर्ग अवस्था में अंधे की लकड़ी बनने की तो, अगर बेहतर संस्कार और इंसानियत का पाठ लड़की ने पढ़ा है, तो वह भी अपने माँ-बाप का सहारा बन सकती है, नहीं तो आज के कलयुगी समाज में बेटे भी अपने बूढ़े मां-बाप को छत से नीचे मरने के लिए धक्का दे देते हैं।

हाल की रिपोर्ट के मुताबिक देश के सत्तरह राज्यों में लिंगानुपात घटना चिंतन और मनन का विषय होना चाहिए, क्योंकि यह उस दौर में हो रहा है। जब शिक्षा का प्रचार-प्रसार समाज की अंतिम पंक्ति में ख़ड़े व्यक्तियों तक पहुँच रहा है। पुराने समय में कहा जाता था, कि शिक्षा का प्रचार-प्रसार न होने और अंधविश्वास के कारण लड़कियों को लड़कों से दोयम दर्जे का माना जाता रहा, लेकिन अब तो शिक्षा अपने उत्कर्ष काल में है। फ़िर यह समस्या घटने के बजाय क्यों बढ़ रहीं है। इस पर बहस होनी चाहिए। आज अजीब स्थिति यह निर्मित हो रही है, कि राजस्थान, छतीसगढ़ और कर्नाटक जैसे बड़े और विकसित राज्यों में जन्म के समय लिंगानुपात घट रहा है, जबकि बिहार जैसे सबसे अशिक्षित राज्य में 9 अंकों की बढ़त विकसित अवस्था और आधुनिकता पर आक्षेप करता है, कि लिंगानुपात में सुधार जब तक नहीं हो सकता। जब तक सामाजिक सोच में परिवर्तन नहीं होता। यह जरूरी नहीं कि सोच परिवर्तन का वाहक शिक्षा ही होगी, क्योंकि पढ़-लिखकर भी इंसानियत धोखा दे जाती है। ऐसे में लिंगानुपात के फासले को रोकने के लिए जनजागृति फ़ैलाने की दिशा में अब समाज को आगे बढ़ना होगा। इसके अलावा अगर विभिन्न सरकारी योजनाओं के बाद भी लड़कियों के साथ खान-पान, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकारों को लेकर समाज में भेदभाव होता है, तो यह स्थिति बदलनी होगी। नही तो अभी हरियाणा राज्य ही मोलकी प्रथा की तरफ़ बढ़ रहा है।

इस प्रथा के मुताबिक हरियाणा के लोग दूसरे राज्यों के ग़रीब परिवार से लड़की खरीदकर लाते हैं, तो ऐसे में कहीं आने वाले समय में शादी करने के लिए अन्य राज्यों को ऐसी स्थिति का सामना न करना पड़े। इसलिए लड़कियों और लड़को के बीच भेदभाव को समाज से तिलांजलि देना होगा। आज अगर तकनीक का प्रयोग लिंग परीक्षण के लिए किया जा रहा, तो यह देश का दुर्भाग्य है, कि जिस तकनीक का उपयोग समाज की उन्नतशीलता के लिए होना चाहिए, उसका उपयोग मानव समाज के विनाश के लिए हो रहा है। दूसरी ओर ग्रामीण परिवेश में देश की लगभग 70 फ़ीसद आबादी रहती है। वहां पर अगर आज दरकार महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा की है, औऱ पिता लड़कों को उस सामाजिक ताने-बाने में अपना सुरक्षा कवच समझता है। तो इस संकीर्ण मानसिकता में भी बदलाव लाना होगा। समाज को बेटा और बेटी को ऊहापोह की मानसिकता से बाहर आना होगा, क्योंकि आज की सदी में हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुषों के बराबर या उनसे आगे की पंक्ति में नज़र आती हैं। औऱ इन सब विषयों से इतर होकर बात करें, तो सभी धर्म इंसानियत को सबसे बड़ा धर्म मानते हैं। ऐसे में जब लड़की-लड़के दोनों इंसान ही हैं, फ़िर उनके साथ भेदभाव क्यों?

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896