एक और बूंद
सागर की अथाह सीमा की,
अनंत लहरों की,
अनगिनत बूंदों में से,
एक और बूंद
खो गई.
इस एक बूंद का क्या अस्तित्व है?
क्या महत्त्व है?
क्या गुरुत्व है?
क्या एक बूंद के घट जाने से
कोई अंतर पड़ता है?
क्या सागर घट जाता है?
मेरे अंतर से आवाज उठती है-
नहीं,
कदापि नहीं.
लेकिन इस एक बूंद के घटने से,
लगता है,
कुछ खो गया है,
बहुत कुछ खो गया है,
सब कुछ खो गया है.
यह बूंद,
अपने पीछे छोड़ गई है-
एक बौखलाहट,
एक तिलमिलाहट,
एक घबराहट,
एक कड़वाहट.
मन में जिज्ञासा उठती है,
ऐसा क्यों हुआ?
कैसे हुआ?
किसकी प्रेरणा से हुआ?
मन के एक कोने से,
एक झीनी-सी,
एक महीन-सी,
आवाज आती है-
यह मानव के मन में,
आदिम काल से बसी,
एक पाशविकता है,
जो यदा-कदा उभरती रहती है
और अपने भयानक पंजों से,
मानवता की कोमल काया पर,
खरोंचें लगाती है,
जलाती है,
झुलसाती है,
तड़पाती है,
तब पीछे शेष रहता है-
जली-अधजली लाशें,
टूटे-जले घर,
उजड़ी हुई बस्तियां,
बेघर भटकते व्यक्ति,
पिघला हुआ तारकोल,
जली हुई बसों, ट्रकों व टैक्सियों के ढांचे,
और लोग?
लोग जो पीछे रह जाते हैं-
टूटे हुए मन, निस्तेज आंखें,
खंडित मनोबल लिए,
अविश्वास के पुतले बनकर,
पाशविकता की लाश कंधों पर लिए,
जीने के लिए जीते हैं.
संभव है,
पाशविकता का यह ताण्डव नृत्य,
अधिक दिनों तक न चले,
मानव की मानवता जाग उठे,
लोगों के टूटे हुए दिल जुड़ जाएं,
फिर भी,
एक गांठ जो पड़ गई है,
इसके सुलझने में तनिक समय लगेगा.
लेकिन यह बूंद ,
जो सागर में समा गई है,
विलीन होते-होते भी,
दर्शा गई,
अपनी महिमा को,
अपनी गरिमा को.
दुष्कर्म और उसके बाद होने वाले दंगों-फसादों के दुष्परिणाम, जिससे इंसानियत तार-तार हो जाती है, का वर्णन करती हुई कविता.