ग़ज़ल – नजरें तुम्हारी गलत हैं
नजरें तुम्हारी गलत हैं और पहनावा मेरा गलत बताते हो,
करते हो गुनाह तुम और गुनाह का दोषी मुझे ठहराते हो।
जब मैं निकलती हूँ साड़ी पहन कर घर से बाहर समाज में,
तब तुम बनकर बेशर्म कमर और पेट पर टकटकी लगाते हो।
यदि मैं निकलती हूँ घर से बाहर सूट सलवार पहन कर,
तब तुम अपनी नजरें मेरे कूल्हों और छाती पर टिकाते हो।
जब कभी जींस पहन कर निकलती हूँ मैं अपने घर से बाहर,
तब देख कर आहें भरते हो और माल मुझे तुम बतलाते हो।
जब कभी पहन कर निकलती हूँ आधुनिक पहनावा मैं,
तब सारी हद पार करके तुम मुझे रंडी तक कह जाते हो।
अब तुम ही बताओ असली दोषी कौन है, गलती किसकी है?
अपने अंतर्मन से पूछना क्यों तुम मुझ पर ऊँगली उठाते हो।
“सुलक्षणा” जानती है तुम्हारे पुरुष होने का अहम जिम्मेदार है,
इसीलिये निकाल कर कमी पहनावे में दोष अपना छिपाते हो।
— डॉ सुलक्षणा अहलावत