पुजारिन
आज कला-मंच का एक चित्र प्रतियोगिता का परिणाम आने वाला था. अपनी बड़ी-बड़ी कजरारी आंखों को अपने छोटे-से घर की खिड़की के पास कला-मंच की ओर से आने वाली राह पर बिछाए खड़ी थी. उसके मन में अनेक विचार उमड़-घुमड़ रहे थे.
वह कभी मंदिर नहीं गई थी. आस-पास के सब लोग रोज मंदिर की देहरी पर माथा रगड़ते और वहां से लौटते समय उसकी बातें करते हुए कहते- ”इसकी मां तो ऐसी न थी, यह न जाने किस पर गई है?”
वह सुनती, पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देती. प्रतिक्रिया देती भी कैसे? हर उसके मन से टकराकर परावर्तित जो हो जाती थी. इधर कुछ दिनों से वह भी पुजारिन हो गई थी. एक दिन मेले से चूड़ियां, नथनी, बालियां और बिंदिया ले आई थी. मनिहारी ने जिस अखबार में चूड़ियां लपेटकर दी थीं, वह उसी दिन का अखबार था. अखबार के उस टुकड़े पर कला-मंच का एक चित्र प्रतियोगिता का विज्ञापन था. एक महीने के अंदर एक श्वेत-श्याम सुंदर-सार्थक चित्र बनाकर भेजना था. उसने कभी कोई चित्र बनाया नहीं था, पर उसे प्रतियोगिता में प्रतिभागी तो बनना ही था.
”एक महीने में यह सब कैसे संभव होगा?” उसने खुद से प्रश्न किया था.
”एक महीने में तो भगवान राम ने सीता की खोज कराई, रामेश्वरम पुल का निर्माण करवाया, लंका पार करके रावण को मारा और सीता को बचा भी लिया.” जवाब भी उसने खुद ही ढूंढ निकाला था.
उसी दिन से वह कला की पूजा में लग गई थी. कई चित्र बने, पर उसकी संतुष्टि नहीं हो पाई थी. आखिरी दिन उसकी पूजा रंग लाई थी. उसे अपना बना चित्र ही बोलता-सा लगा था. उसे लगा सुंदर-सार्थक चित्र बन गया था. बड़े जतन से वह अपना चित्र जमा कर आई थी.
”जाने किसकी किस्मत खुलेगी?”
”बड़े-बड़े धुरंधरों के सामने उसकी भला क्या बिसात है!”
”विजयश्री किसके कंठ को मेडल पहनाएगी?”
ऐसे ही अनेक प्रश्न उसके सामने आते-जाते रहते, अगर सामने वाले बजरंगी चाचा उसको आवाज लगाकर उससे न पूछते- ”जानकी बिटिया, तुमने किसी चित्र प्रतियोगिता में भाग लिया था क्या?”
”जी हां चाचाजी, आपको कैसे पता लगा?”
”अरी बिटिया, तेरा फोटू देखकर सूचना बोर्ड पर देखा- तेरे चित्र को प्रथम पुरस्कार मिला है.”
”सच कह रहे हैं चाचाजी?” कहने को तो बाहर से वह इतना ही कह पाई थी, पर उसका अंतर्मन कह रहा था- ”आज पुजारिन की पूजा कुबूल हो गई.”
उसने सिद्ध कर दिया था, कि शिद्दत और लगन से काम करने को ही सच्ची पूजा है.
मंज़िलें अभी और भी हैं, मुश्किलें अभी और भी हैं
तस्सलिए सूरज को न चमकाओ यारो, हमारी बाज़ुओं में हौसले अभी और भी हैं.