ग़ज़ल
पाक आतंकी कभी बाज़ आएँ क्या
बारहा दुश्मन से’ धोखा खाएँ क्या ?
गोलियाँ खाते ज़माने हो गये
राइफल बन्दूक से घबराएँ क्या ?
जान न्योछावर शहीदों ने की’ जब
सरहदों को हम मिटाते जाएँ क्या ?
सर्जिकल तो फिल्म की झलकी ही’ थी
फिल्म पूरा अब तुम्हे दिखलाएँ क्या ?
आपका विश्वास अब मुझ पर नहीं
अनकही बातें जो’ हैं बतलाएँ क्या ?
खो दिया है सब्र जिसने बेवज़ह
बेसब्री को और हम भड़काएँ क्या ?
बेवज़ह करता अदावत मसखरा
ना समझ को और हम समझाएँ क्या ?
बोलते हैं झूठ हरदम रहनुमा
झूठ का बाज़ार है झुठलायें क्या ?
बावफा नादान है, गलती की’ है
बज़्म में ‘काली’ अभी बुलवाएँ क्या ?
कालीपद “प्रसाद’