खरगोश ने पूंछ बदल ली
छोटा-सा खरगोश निताशा,
रहता था छोटे बिल में,
अपनी छोटी पूंछ देखकर,
बड़ा दुखी होता दिल में.
एक लोमड़ी उसने देखी,
उसकी लंबी पूंछ निराली,
बोला, ”मौसी, पूंछ बदल लो,
सचमुच यह तो बहुत निराली.”
पूंछ लोमड़ी की लेकर तब,
उसने अपनी पूंछ बदल ली,
पर भारी-सी पूंछ लगाकर,
सिट्टी-पिट्टी गुम थी उसकी.
चिड़िया की नन्ही-सी पूंछ से,
उसने अपनी पूंछ बदल ली,
वह भी उसको पसंद न आई,
अब तो उसकी शामत आई.
गोल-गोल और पतली-पतली,
पूंछ सुअर की देख लुभाया,
फिर से उसने पूंछ बदल ली,
पर न उसे कुछ सुख मिल पाया.
चलते-चलते चूहा देखा,
पतली-लंबी पूंछ थी उसकी
पूंछ बदल ली फिर से उसने,
सोचा, यह तो खूब सजेगी.
देख मोर की पूंछ रंगीली,
सोचा यही सजेगी मुझ पर,
पूंछ लगाकर चला मोर की,
कुछ दूरी तक चला अकड़कर.
साही एक मिला तब उसको,
उससे उसने पूंछ बदल ली,
पर वह तो थी कांटों वाली,
कुछ ही देर में देह रगड़ ली.
अपनी पूंछ लगाकर बोला,
अपनी चीज ही होती अच्छी,
मन में हो संतोष अगर तो,
झुग्गी भी है महल से अच्छी.
सच बोला है किसी संत ने,
”धन नहीं कोई संतोष समान,
जब आवै संतोष-धान,
सब धन होता धूरि समान.
भगवान जिसको जो देता है, सोच-समझकर सही ही देता है. खरगोश ने बार-बार पूंछ बदलकर देख ली, तब कहीं उसे जाकर यह बात समझ में आई, कि अपनी चीज ही सबसे अच्छी होती है,