आखिरी कहानी (भाग 1/5)
अध्याय 1 – मालती
सिगरेट के धुएँ में उसके चेहरे का केवल दाढ़ी-मूँछ वाला हिस्सा दिख रहा था, बाक़ी धुएँ में ही विलीन हो चुका था। उस गुमटी के पास गड़े लैम्प पोस्ट के नीचे खड़े होकर वह इतनी डरावनी मूरत लग रहा था कि उस ओर जा रही एक बिल्ली सहमकर खड़ी हो गई। उसका आगे बढ़ा हुआ पाँव आगे और पीछे से उठने वाला पाँव उठने की बजाय ज़मीन से चिपक गया। अपनी बिलौटी आँखों से उसने निरंजन को देखा और उसे अपनी ओर घूरता देख उसकी पूँछ खड़ी हो गई। गुमटी के पीछे से निकलने वाले जिस चिर-परिचित रास्ते से वह जाना चाहती थी उसे भूल वह वापस भाग खड़ी हुई।
निरंजन चाहता तो था कि अपने पसंदीदा बार में जाकर सिगरेट और बीयर पिए। मगर वह इन साधारण सी सोई हुई गलियों से गुज़रकर इस नुक्कड़ तक सिगरेट पीने आया। केवल इसलिए क्योंकि उसे कहानी की तलाश है। भला यहाँ उसके लिए कहानी कहाँ हो सकती थी?
निरंजन का यह सिद्धांत है कि जो बातें तुम्हें अखबार, रेडियो, टेलीविज़न और इंटरनेट से भी हासिल नहीं हो सकती वो आज भी इन नुक्कड़ के पनवाड़ियों के पास मिलेगी, सिगरेट तो ख़ैर मिल ही जाएगा। लेकिन आज भी यही हुआ केवल सिगरेट ही मिली। ऐसी कोई दिलचस्प बात नहीं मिली जिसका पीछा करते हुए उसे अपनी मनचाही कहानी मिले।
आधी जली- आधी बुझी सिगरेट को झुँझलाहट से उसने पैर के पास फेंका और बूट से बुझा दिया। जैकेट को सीने पर और कसते हुए उसने अपने हाथों को काँखों के नीचे दबाया और यह सोचते हुए एक अँधेरी गली में घुस गया कि पनवाड़ी बातें तो बड़ी दिलचस्प करता है मगर संकलन की ये आख़िरी कहानी तो ज़बरदस्त होनी ही चाहिए और ऐसे विषय पर होनी चाहिए जिसपर किसी ने कभी कुछ न लिखा हो।
गली के बीचोंबीच उसने एक हल्की रोशनी में एक लड़की या एक औरत को जाते देखा जो सहमी हुई है और अपना पर्स सीने से चिपकाए गली से तेज़ी से गुज़र रही है। शायद उसे आज ऑफिस से लौटने में देर हो गई। बेचारी जान हथेली पर रखकर सुनसान गलियों से घर लौट रही है।
निरंजन ने तेज़ी से उसका पीछा किया। उसके बूट की आहट से लड़की भी तेज़ चलने लगी मगर पीछे मुड़कर देखने का उसे साहस न हुआ। निरंजन और तेज़ हुआ, लड़की और तेज़। निरंजन ने और तेज़ी बरती तो लड़की लगभग भागते हुए एक घर का गेट खोलकर अंदर घुस गई। निरंजन उस गेट से गुज़रा तो लड़की लाल आँखें किए, फूले हुए नथुनों से उसे देख रही थी।
निरंजन को अपनी इस ओछी हरक़त पर बड़ा मज़ा आया, जैसे बचपन में किसी कुत्ते-बिल्ली को खदेड़ने में आता है। निरंजन शरारती मुस्कान फेंकता हुआ वहाँ से गुज़र रहा था और लड़की ने घृणा से चेहरा घुमा लिया। उसके चेहरे की घृणा उसको अपनी फूहड़ हरकत की जीत सी लगी। जैसे वह यही प्रतिक्रिया तो उससे उगलवाना चाह रहा था। गेट पर सफेद गुंबद जैसे लगे बल्बों की रोशनी में उसने उसे जाते हुए देखा। गुलाबी और काले रंग का पटियाला सूट।
गुलाबी और काला रंग कैसा बेमेल सा लगता है। ऐसे ही बेमेल कपड़े मालती भी पहनती थी। मालती? हाँ मालती। नाम से तो कोई गाँव की भोली-भाली गँवारन लगती है मगर निकली बड़ी चंट। निरंजन से भी चंट। जाने कैसे निरंजन सोच भी सकता था कि उससे शादी हो सकती थी। उससे,जिससे किसी की कभी नहीं हो सकती। जो खुद कभी किसी की नहीं हो सकती थी भला उसकी कैसे हो सकती थी?
निरंजन ने ईंटों की बनी उस उबड़-खाबड़ गली के बीचोंबीच अपना सिर उठाकर एक ज़ोरदार साँस खींची। अब भी जब वो लंबी-लंबी साँस भरता है तो मालती के बदन की खूशबू जाने कहाँ से आकर उसके फेफड़ों में बस जाती है। उस सीलन भरे कमरे में, उस गंदले बिस्तर पर, जहाँ जाने कितनों ने कितनी सिलवटें पैदा की थी, उसी बिस्तर पर उसकी खूशबू सब-कुछ भुलाकर सिर्फ उसके ही बारे में सोचने पर मज़बूर करती थी, खींच लाती थी उसे, मीलों दूर से। मीलों दूर से भी लौटकर वह उस चकले पर ही जाना चाहता था, जहाँ की हर चीज़ में उसकी खूशबू बसती थी।
उन अँधेरों सी बदनाम गलियों में, जहाँ रात में भी गलियाँ चमचमाते सूरज सी रोशन रहती, आख़िर वह वहाँ पहुँचा कैसे,? कहानी की खोज में, और क्या? हाँ बिल्कुल इसीलिए तो गया था कि अपने इस शानदार कथा-संग्रह की शुरूआत किसी बहुत ही चिलचस्प और अँधेरी गलियों के राज़ खोज निकालने वाली, सनसनी कहानी से करे। इन बदनाम गलियों में कोई नहीं जाता, लेकिन इसके बारे में पढ़ना-सुनना और फिल्में देखना सबको पसंद है। पारो से लेकर चमेली तक, सब पर लिखा-सुना-देखा-दिखाया जा चुका है। जैसे यहाँ के लोग किसी और ग्रह के वासी हों।
वो भी गया था इस ‘किसी और ग्रह’ पर। अपनी कहानी की खोज में। गया तो था कहानी ढूँढने, पर मालती के आशिकों में शुमार होकर खुद एक कहानी बनकर रह गया। अपनी और रिझाते-बुलाते, भड़कीले रंगों के परिधान से सजे, उन साधारण चेहरों के आगे झुक जाने का सवाल ही नहीं था। मगर वो तो झुका ही नहीं बल्कि पूरा लोट गया उस एक के चरणों में।
हुआ यों कि हर समय मुँह में लाल पान रखने वाली रसीलीबाई, हाँ रसीलीबाई, यहाँ आने से पहले जाने क्या नाम रहा हो उसका, मगर अब तो यही था। उसी के एक आशिक पर कहानी लिखने का निरंजन पूरा मन बना चुका था। यह आशिक भी कोई मामूली नहीं था। शहर के किसी बड़े औद्योगिक घराने की एकलौती संतान था। जाने कब, किस मनहूस घड़ी में दोस्त उसे इस गली में मज़ा ढूँढने ले आए। उसके नोटों की गड्डी के आगे अगर किसी का हुस्न ठहरता था तो वो बस रसीलीबाई का। और इस चौक पे कोई न थी जिसको खरीदना एक चुनौती हो।
इस चुनौती को शाहज़ादे ने इस क़दर लिया कि रसीली से कुछ भी करवा जाने की हर क़ीमत चुकाई। जनाब को खबर ही नहीं लगी कि करवा तो वो रही थी। क्या करवा रही थी? उसके हाथों उसको तबाह, और क्या? शाहजादे को पूरी तरह चूस लेने के बाद किसी घूरे पर फेंके हुए आम की तरह निकाल बाहर किया। आज उसे उन गलियों के कुत्ते भी नहीं पूछते और कभी-कभी उस पर भौंक भी पड़ते हैं क्योंकि जैसी फटीचर हालत उसकी आज है वैसी फटीचर हालत वाला कोई आदमी कभी रसीली की चौखट पर जा ही नहीं सकता, इसीलिए कुत्ते सोचते हैं कि फिर उसके दरवाज़े पर दिन-रात पड़े रहने वाला यह अजनबी आख़िर कौन है।
तो इन्हीं जनाब की खोज-ख़बर लेने निरंजन रोज़ उन गलियों में बेखटक जाया करता था क्योंकि उसे तो पूरा भरोसा था कि उसे कोई हूर-परी भी नहीं रिझा सकती तो फिर ये दो टके में बिकने वाली औरतें क्या चीज़ हैं? उल्टा उसे तो रसीलीबाई के इस नामुराद आशिक़ पर आश्चर्य हो रहा था कि कोई इतना दीवाना कैसे हो सकता है भला? वह भी एक औरत के पीछे। इसी आश्चर्य को वह कहानी के रूप में उतारने जाया करता था।
मगर मालती? मालती से कैसे वास्ता पड़ गया? हाँ मालती। उन्हीं गलियों में रहती थी। शायद कई बार एक-दूसरे के आस-पास से गुज़रें भी हों, मगर ध्यान नहीं दिया हो। किसी नूरानी चेहरे को तो निरंजन भाव नहीं देता। भला इस मामूली से भी मामूली चेहरे को क्या भाव देगा?
मगर दिया भाव, उस दिन जब वह कई दिनों से उन गलियों में जा-जाकर खाक़ तो छान रहा था मगर रसीलीबाई उससे किसी भी बात पर बोलने-बतियाने को तैयार नहीं थी। और जब तक कहानी की हीरोइन ही उससे बात नहीं करेगी तो कहानी क्या खाक़ लिखेगा? रसीलीबाई भी थी तो निहायत हीरोइन ही। बिना रोकड़े के तो वह चेहरा भी नहीं देखती थी, भला बात क्या करती? और दूसरी ओर हमारे निरंजन बाबू ठहरे निहायत ठनठन गोपाल, अव्वल दर्जे के लेखक। उसका रुपए-पैसे से भला क्या संबंध?
आज फिर वह मन बनाकर आया था कि रसीलीबाई से मिलेगा। पिछले कुछ दिनों रसीलीबाई का दिल भी पिघला-पिघला मिला। उसने महीनों से दरवाज़े पर पड़े उस आशिक़ को घर में जगह दे दी है, भले ही उसका पीकदान उठाने के लिए दी हो। रसीलीबाई जैसी औरत से इतनी रहम भी, अनमोल खज़ाना पा जाने जैसा था। अब निरंजन इसी उधेड़बुन में वहाँ के चक्कर काटा करता था कि कैसे वह भी रसीलीबाई के रहम का पात्र बने और उससे मिलकर उसकी कहानी जान सके, उसका दिल टटोल सके।
मगर आज वह उसकी गली के मुहाने पर ही था कि एक नज़ारे ने उसकी आँखें वहीं रोक लीं। एक लड़की लाख कोशिशों के बाद भी एक अधेड़ उम्र के आदमी से अपनी कलाई छुड़ा नहीं पा रही थी। आँखों से ही लार टपकाने के साथ-साथ क्रोध का दावा करने वाले उस आदमी का कहना था कि उसने उसकी भारी कीमत चुकाई है। भला उसे ऐसे कैसे जाने देगा? जबकि लड़की गुहार लगा रही थी कि उसे छोड़ दिया जाए क्योंकि उसे तेज़ बुखार है।
यों तो निरंजन के सामने कोई बलात्कार भी हो रहा हो तो वह अपनी सिगरेट सुलगाते हुए बगल से निर्विकार होकर निकल जाए। मगर आज जाने कैसे वह पिघल गया या उसके माथे पर कुछ नई लकीरें बन रही थीं जो उस लड़की से जुड़ने को नियत थीं या फिर एक और कारण भी हो सकता है। निरंजन इतना विशाल हृदय तो नहीं रखता था कि बेवज़ह किसी की मदद के लिए कूद पड़े, हो सकता है उसने इस लड़की को रसीलीबाई के यहाँ आते-जाते देखा था इसलिए उसकी मदद के लिए बीच में कूदा।
कारण खैर जो भी हो, निरंजन आज हीरो था और वह लड़की हिरोइन। किसी औरत के साथ ज़बरदस्ती करने वाला आदमी हमेशा अंदर से कायर ही होता है। इसलिए भले ही वो किसी औरत के साथ ज़बरदस्ती कर भी ले तो अपने बराबर के या अपने से अधिक बलवान आदमी से टक्कर मिलने पर भाग खड़ा होता है। उस आदमी के साथ भी यही हुआ। वह निरंजन के आगे टिक न पाया और उस लड़की को सबक सिखाने की धमकी देता हुआ भाग खड़ा हुआ।
अब गली के उस मोड़ पर निरंजन था और मासूम-भोली सी वह लड़की जिससे बहुत जल्द निरंजन ज़िंदगी के नए सबक सीखनेवाला था। ज़िन्दगी में पहली बार निरंजन ने अपने आप को किसी औरत के संरक्षक के रूप में महसूस किया। मालती ने भी पूरा-पूरा अधिकार दिया जैसे उस खूँखार आदमी से उसे बचाने के बाद उसके प्राणों का अब वो ही स्वामी हो। निरंजन भी पूरा-पूरा फूल गया और किसी कुचले हुए नाज़ुक से फूल को जिस तरह हथेलियों में समेटा जाता है उसी तरह मालती को अपने चमड़े के जैकेट में समेट उसे उसके घर छोड़ आया।
घर? कैसा घर? एक गुफानुमे घर के दोनों ओर बंद सीलन भरी जेलें थीं। हाँ आम इंसान के लिए तो जेल जैसा ही था। मगर मालती का तो यही घर था, यही जन्मस्थली और शायद यही मरणस्थली भी। वहाँ जमा और लड़कियों ने मालती को निरंजन के साथ देखा तो जल-भुन गईं कि गई तो थी एक अधेड़ उम्र के जल्लाद के साथ और जाने कहाँ से यह बाँका जवान ग्राहक पकड़ लाई।
पर निरंजन उसे कमरे तक ही छोड़कर लौट आया। उसकी झुकी हुईं पलकों ने जब अलविदा और शुक्रिया साथ-साथ कर दिया तो निरंजन अपना दिल वहीं उसी पलक के ऊपर हार बैठा। कुछ इस क़दर खुद को भूल बैठा कि उसे होश ही नहीं रहा कि उसे मालती की मदद से रसीलीबाई तक पहुँचना था। घर पहुँचकर जब टेबल पर पड़े खाली पन्ने देखे, तब याद आया कि मालती से दोस्ती तो किसी और कारण से की थी और दिल व दिमाग़ कुछ और ही करने पर आमादा हो रहे हैं।
जब कलम ने पन्नों पर घिसटने से मना कर दिया तो निरंजन को लगा कि किसी भी हालत में रसीलीबाई से मिलना ही पड़ेगा। जब तक कलम चारा नहीं खाएगी, दूध नहीं देगी। जब तक रसीलीबाई से साक्षात्कार नहीं करेगा, कहानी पूरी नहीं होगी। जब एक अक्षर भी लिखना मुहाल हो गया तो निरंजन बेचैन हो उठा और इसी बेचैनी में काग़ज़-कलम फेंक वो रात के दो बजे, घर से ही सुनसान रास्तों पर अकेले निकल पड़ा।
भटकते-भटकते कब उसके क़दम वहाँ पहुँच गए, उसे भी ज्ञान न हुआ। देखा तो सारा शहर सो रहा था, मगर शहर की सबसे अँधेरी गली जगमगा रही थी। वह उस गलीनुमा घर के बाहर खड़ा जाने क्या सोच रहा था कि वहाँ से गुज़र रही एक औरत ने उसे पहचान लिया। बगल की चहल-पहल से निकलकर वह उस तक आई।
“क्या हुआ साहेब? यहाँ क्यूँ खड़े हो?”
उस गाढ़े मेकअप और भड़कीले रंगों वाली चमकीली साड़ी में लिपटी दोहरे बदन की औरत को देखकर निरंजन सकपका गया।
“वो …अं.अ अ..”
“मालती के पास आए हो न? वो है न अंदर। आज कोई नहीं है उसके पास। आप जा सकते हो।“
कुछ बोलने की बजाय निरंजन उसे खोई-खोई आँखों से देखने लगा। जैसे कुछ समझ ही न रहा हो कि वह क्या कह रही है।
“वो क्या है न साहेब, सुबह जो ग्राहक को आप भगा दिए थे, तो दूसरे ग्राहक लोग भी डर गए। इसलिए अब उसके पास कोई नहीं जा रहे।“
निरंजन अब ज़मीन की ओर देखकर इस सोच में डूब गया कि सुबह उसने सही किया या गलत।
निरंजन को चिंताग्नस्त देखकर वह उसकी चिंता मिटाने में लग गई और उसको लगभग मकान की ओर ढकेलती हुई बोल उठी।
“ऐसा सब तो होता ही रहता है साहेब। आप टेंशन काहें लेते हो। एक-दो दिन में सब ठीक हो जाएगा।“
उस ओर ढकेले जाने के बाद निरंजन स्वत: ही उस ओर चल पड़ा जैसे ठेले को ठेल देने पर वह कुछ दूर स्वत: ही चला जाता है। कमरों के बाहर गैलरी में घूम रही, खड़ी बतियाती, ठिठोली करती, एक-दूसरे पर लुढ़कती, हँसी से दुहरी होती, इशारे करती, मज़ाक बनाती औरतें, और उन औरतों की भीड़ में एक स्टूल पर टिकी मालती पर नज़र पड़ी। सामने खड़ी अपनी सहेली की बातें सुन, मुँह पर दोनों हाथ रखे वह हँसे जा रही थी। सुबह वाली बुखार से तपती मालती एकदम गायब थी। हरारत का कहीं नामोनिशान नहीं था।
मगर निरंजन से नज़र मिलते ही उसकी हँसी गायब हो गई। न तो सुबह की तरह उसने नज़रें झुकाई और न ही उससे सकुचाई। बस एकटक आश्चर्य से देखती रही है कि भला यह, यहाँ, इस समय कैसे?
उसकी शंका मिटाते हुए निरंजन ने कहा –“आप से कुछ काम है।“
मालती अपने स्टूल से उठ गई और खड़ी होकर बोली – “बोलो।”
निरंजन ने सकुचाते हुए इधर-उधर देखा। चारों ओर शोर रत था। फिर वापस मालती पर आते हुए बोला – “यहाँ नहीं। अकेले में।“
यह सुनकर मालती की आँखें एकदम बुझ गईं और उसने सिर झुका लिया जैसे मन ही मन कह रही हो कि तुम भी वही निकले। कुछ पल रुककर उसने उसे गैलरी में आगे आने का इशारा किया और थोड़ी दूर बने एक गुफानुमा कमरे में ले जाकर किवाड़ अंदर से बंद कर लिया।
निरंजन ने घूरकर उस कोठरी को देखा। सीलन की बदबू, दीवारों से निकलती पपड़ी, और एकलौते बिस्तर पर पड़े मैले और सिलवट से भरे चद्दर से नज़र हटाकर उसने मालती को देखा। लेकिन मालती तो तब से उसे ही देख रही थी जब से वह कमरे का मुआयना कर रहा था।
“साहब! पैसे तो मेरे मामा को देने होंगे।“
मालती की बातें जैसे निरंजन के कानों पर पड़ ही नहीं रही थी। वह उसकी काज़ल लगी आँखों में खोया हुआ था। उसकी आँखों में काजल की पतली धार थी जबकि अब तक निरंजन ने यहाँ जिसे भी देखा उसकी आँखों में मन भर काजल पुता हुआ पाया था। उसे वह पतली लकीर अच्छी लगी। मन किया छूकर देखे।
मगर इसी ख्याल के साथ उसे ख्याल आया कि वह यहाँ उसे घूरने या छूने नहीं आया है। वह किसी महान कथा की पूर्ति के उद्देश्य में आया है। जैसे कोई सोते से अचानक जाग जाता है, निरंजन भी जगता हुआ सा एक ही साँस में बोल गया।
“मुझे रसीलीबाई से मिलना है। क्या तुम मुझे किसी तरह उसके पास पहुँचा सकती हो?”
मालती अचानक आए इस तूफान से अनजान थी इसलिए झटके से बोली –“क्या?”
“रसीलीबाई ….रसीलीबाई तक पहुँचा सकती हो?”
“लेकिन उसका रेट तो बहुत हाई है साहब।“
“नहीं-नहीं। मुझे उसका इंटरव्यू लेना है।“
“इंटरव्यू?” कहते हुए मालती ने दोनों हाथ मुँह पर रख लिए और कुछ देर तक फुलझड़ी की तरह हँसती चली गई। निरंजन उसे हँसता हुआ देखता ही रह गया। जब उसकी हँसी रुकी तो अपने आप को सँभालते हुए, बड़ी मुश्किल से उसने आगे बात की।
“वो क्या हीरोईनी है कोई, जो आप इंटरव्यू लोगे?“
एक पल को तो निरंजन उसे बताने को हुआ कि वह बेहतरीन कहानी की खोज में उसका इंटरव्यू लेना चाहता है ताकि वह रजनी जी के मुँह पर उस कहानी को मारकर उन्हें दिखा सके कि अच्छी कहानी क्या होती है। वह उसे बताना चाह रहा था कि कैसे उस सभा में उसने कहानियों का एक बेहतरीन संकलन पेश करने की भीष्म प्रतिज्ञा की थी और इसलिए वह इंटरव्यू लेना चाहता था और इसलिए नहीं क्योंकि वह कोई हीरोइन थी।
मगर अगले ही पल उसके कानों में कसक सी हुई। उसकी हँसी दुबारा सुनने की कसक। उसे हँसाने की चेष्टा में वह बोला।
“हाँ हीरोईनी ही तो है।“
मालती हँस-हँसकर दुहरी हुई जा रही थी। एक तो उसके द्वारा बोले गए ‘हीरोईनी’ शब्द के उच्चारण को जस का तस दुहराए जाने पर और दूसरे रसीलीबाई को ‘हीरोईनी’ कहने पर। निरंजन भी अपनी सफलता पर मुस्कुरा उठा। हँसते-हँसते वह उस बिस्तर पर पेट पकड़कर लोट गई जिस पर वे दोनों बैठे थे।
निरंजन की नज़र सलवार के पोंचों से बाहर झाँकती उसकी एड़ियों और पैरों पर गई। उससे भी ज़्यादा उस चाँदी की पतली पायल पर गई जो काली हो चली थी। उसके पैर कुछ खास नहीं थे मगर खूबसूरत लगे। या शायद सिर्फ निरंजन को उस समय खूबसूरत लगे।
मालती अपना दुपट्टा सँभालते और घुटनों को अपनी बाँहों में भरते हुए संयत स्वर में लौट आई।
“तुम क्या अखबार में काम करते हो?”
“नहीं।“
सर झटकते हुए बोली “नहीं तो क्या फिर पुलिस में हो?”
“नहीं। मैं लिखता हूँ।“
बाएँ हाथ की चटक लाल नेल पॉलिश लगी तर्जनी उसकी ओर कर मालती ने पूछा “तुम? लिखते हो?”
निरंजन एकदम से झटका खा गया। उसकी आँखों के आगे उस सभा के नज़ारे घूम गए जहाँ कुछ ऐसा ही सवाल, कुछ ऐसी ही भावभंगिमा और कुछ ऐसी ही आवाज़ सुनने को मिली थी। मालती उसकी गंभीर मुद्रा देख सकपका गई। उसे क्षोभ हुआ कि कब वो ‘आप’ और ‘साहेब’ से उतरकर ‘तुम’ पर आ गई और उससे इस कदर बदतमीज़ी भरे लहज़े में पूछ बैठी।
निरंजन भी जाने किस नेपथ्य में जाकर लौटा था कि फूले हुए नथुनों को आगे कर उसी गंभीर लहज़े में उसे जवाब देने लगा।
“हाँ, मैं लिखता हूँ। तुम्हारी एक रात की क़ीमत तुम्हें….तुम्हारे मामा को चुका दूँगा। तुम मुझे रसीलीबाई से मिलवा दो।“
घुटनों को वापस बेड से नीचे लटकाते हुए उसने कुछ सोचते हुए और ठुड्डी पर हाथ रखते हुए निरंजन को जवाब दिया।
“वो तो थोड़ा मुश्किल काम है साहेब। वो बाई तो इतनी आसानी से किसी से मिलती नहीं। पर मैं कोशिश ज़रूर करूँगी।“
वह बिस्तर पर उल्टी लेट गई। निरंजन विस्मित हुआ कि कर क्या रही है यह लड़की। मगर जल्द ही उसने बिस्तर के उस कोने में, गद्दे के नीचे छुपाया एक बहुत ही पुराना और बेसिक सा फोन निकाला। और वापस पैर झुलाते हुए बैठ गई।
फोन पर झुकी हुई और बटनों पर उंगलियाँ जमाए मालती ने कहा “मुझे अपना नंबर दे दो साहेब। अगर हो पाया तो फोन करूँगी….” और फिर सिर उठाकर उसकी ओर देखते हुए बड़ी ही निष्ठुरता से बोली “….नहीं तो समझ लेना कि काम नहीं बना।“
डूबते को तिनके के सहारे जैसे निरंजन ने इस मौके को लपका और फटाफट नंबर बोल गया और उतनी ही तेज़ी से फोन का बटन दबाती हुई मालती ने उसे सेव कर लिया।
“तुम्हारा मामा कहाँ मिलेगा?”
“ये दो कमरे छोड़कर, दीवार से सटकर खड़ा, चेक लुंगी वाला मुच्छड़ मेरा मामा है।“
फिर दोनों कोठरी से बाहर आ गए। मालती को पीछे छोड़कर जाते हुए निरंजन ने महसूस किया कि कोई लड़की मालती के क़रीब पहुँचकर कह रही थी –“इतनी जल्दी निपटा दिया? बड़ी तेज़ निकली तू तो।”
“चुपकर।”
ये मालती की आवाज़ थी।
वहाँ से लौटने के बाद निरंजन कई दिन तक बेचैन रहा। उसने मालती के फोन का काफी इंतजार किया। मगर जैसे-जैसे दिन बीतते गए, निरंजन को लगा कि उसकी आख़िरी उम्मीद भी खत्म हो रही है। वह वहाँ जाना भी चाहता था और नहीं भी क्योंकि जाकर भी कुछ नहीं कर सकता था। रसीलीबाई उससे मिलेगी नहीं और वह उस तक पहुँचने का कोई और रास्ता खोज नहीं पा रहा था।
इस बीच बेचैन होकर उसने वह कहानी भी लिख डाली, वह भी बिना रसीलीबाई का पक्ष जोड़े। सारी कहानी केवल उस पानदान उठाते अमीर आशिक के इर्द-गिर्द घूम रही थी। मगर फिर भी उसे कहानी बेहतरीन लगी। कहानी खत्मकर उसे ऐसे संतोष का अनुभव हुआ कि वह काग़ज़-कलम एक ओर फेंक दो-चार दिन के लिए घूमने निकल जाए।
उसने सौरभ को फोन किया। मगर वह व्यस्त था, उसके ऑफिस में ऑडिट का काम चल रहा था। उसका आ पाना नामुमकिन था। निरंजन ने अकेले ही गोवा घूमने जाने की योजना बना ली थी। टिकट-विकट कटाकर उसने सामान-वामान बाँध लिया। मगर ट्रेन में अभी काफी समय था। समय काटने के लिए वह एक मेले में पहुँच गया, जो शहर में लगभग हर साल इसी समय लगा करता था।
मेले में हर चीज़ खुशनुमा लग रही थी। झूलों, गुब्बारों, मिठाइयों, खिलौनों के लिए ज़िद करते बच्चे खुशनुमा लग रहे थे। किनारे-किनारे लगे बाज़ार रंगीन लग रहे थे और उनके दुकानदार व ग्राहक; सब खुशनुमा लग रहे थे। खेल-तमाशे वाले और तमाशबीन भी खुशनुमा लग रहे थे। हँसती-अठखेलियाँ करती लड़कियाँ और उनको ताड़ते लड़के खुशनुमा लग रहे थे। सब कुछ खुशनुमा था क्योंकि निरंजन ने उस संकलन की एक महत्वपूर्ण कहानी को अंजाम दे दिया था।
यूँ ही तफरी काटते-काटते निरंजन एक दुकान पर ठिठककर रुक गया। वहाँ तरह-तरह के सस्ते हार, मालाओं, कड़ों के बीच एक चमचमाती पायल रखी थी। निरंजन ने एकटक उसे देखा फिर दुकानदार को। दुकानदार कुछ ग्रामीण औरतों को गिल्लट के गहने दिखाने में व्यस्त था। निरंजन ने उस पायल को छूकर देखा। फिर हाथ में लेकर उछाला और कसकर पकड़ लिया। दुकानदार का ध्यान अपनी ओर खींचते हुए उसका दाम पूछा। उसने पायल पैंट की जेब में डाल ली और दुकानदार को पैसे चुकाकर चलता बना।
निरंजन के दोनों हाथ जो अब तक उसके बगल में झूल रहे थे अब उसकी पैंट की जेबों में थे। थोड़ी देर वह और मेले में घूमा मगर मेले की वह रौनक खत्म सी लगी जो शुरूआत में उसे आकर्षित कर रही थी। अब एक अजीब सी उदासी ने उसे घेर लिया और वह घर लौट आया।
घर लौटकर भी वह कुछ नहीं करना चाहता था इसलिए समय से पहले स्टेशन पहुँच गया और आते-जाते यात्रियों की भावभंगिमाएं देख उनमें कहानियाँ ढूँढने लगा। कहानी तो न मिली, अगरचे ट्रेन आ गई। उसने अपना छोटा सा बैकपैक दाएँ कंधे पर लटकाया और ट्रेन में घुस गया।
अपनी सीट ढूँढकर वह अभी बर्थ पर टिका ही था कि उसका स्मार्टफोन घनघना उठा। अनमने मन से उसने अपने पैंट की दाईं जेब में हाथ डाला तो कुछ घुँघरू झनक गए और ऐसा लगा जैसे सीने में उन घुँघरूँओं की गूँज उठी हो। उसने हाथ वापस खींच लिया। याने फोन बाईं जेब में था।
झट से फोन बाहर निकाला तो देखा मालती का फोन आ रहा था। उसने यंत्रवत फोन चालूकर अपने कानों से लगा लिया।
“अभी के अभी आ सकते हो साहेब?”
देर से आपस में चिपके हुए निरंजन के होंठ अलग हुए।
“अभी?”
“हाँ अभी आ जाओ। जल्दी।“
इससे पहले की निरंजन कुछ कह पाता, कुछ सुन पाता, कुछ समझ ही पाता; फोन कट गया। निरंजन झट से अपनी बर्थ से उठा और बोगी के दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ। ट्रेन चल पड़ी थी। निरंजन असमंजस में था। वह उतरे? उतरे तो क्यों उतरे? उसे वहाँ जाना चाहिए? जाना चाहिए तो क्यूँ? आख़िर कहानी तो उसने पूरी कर ली है। फिर भला वहाँ जाकर क्या फायदा?
अपना बैग लटकाए निरंजन फिर उन परिचित गलियों में था। फिर वही रौनक थी वहाँ, फिर वही हँसी की बेवज़ह छूटती फुलझड़ियाँ थीं। वही चटक और चमकीले लिबासों में लिपटी औरतें। हर कोई अपने आप में मशगूल था। इसी मशगूल भीड़ में वह था और अपनी दाईं जेब में हाथ डालकर कसकर पायल थामें हुए; अपनी जगह बनाते; उस कमरे के पास पहुँचा जहाँ मालती बाहर ही खड़ी थी। आज उसके कपड़ों से न सेंट का वो भभका उठ रहा था जो पहले उठता था और न ही उसके कपड़े पहले की तरह बहुत भड़कीले थे। सीधे-साधे हल्के रंग के कपड़ों में वह मालती ही है, पता करने में थोड़ी दिक्कत हुई। मगर कितनी सही लग रही है, कितनी पारिवारिक?
“आप आ गए साहेब! कितनी देर लगा दी? जल्दी चलो, वरना रसीलीबाई फिर किधर और चली जाएगी तो मिलेगी ही नहीं।“
मालती ने उसको कुहनी के पास से पकड़कर लगभग खींचते हुए अपने साथ भगाना शुरू किया। उसकी तेज़ चाल को पकड़ने के चक्कर में निरंजन उलझन में पड़ गया कि पहले अपना हाथ छुड़ाए, उसकी तेज़ चाल रोके या उसे यह कहे कि क्या रसीलीबाई से मिलना ज़रूरी है।
मगर वह कुछ न कर पाया; जैसे किसी आत्मा के वशीभूत हो। चुपचाप उसके साथ चलता चला गया या लगभग भागता चला गया। जाने कितने जीनों-सीढ़ियों और बरामदों से होते हुए वे एक खूबसूरती से सजाए कमरे में पहुँचे। निरंजन उस कमरे पर बिछी कालीन तो कभी ऊपर लगे झाड़-फानूस देखने में व्यस्त था। कालीन से मैचिंग साल की लकड़ी के सोफे थे जिसमें बीच में कालीन की ही प्रिंट वाले मुलायम गद्दे सिले हुए थे।
एक काले जिन जैसे दिखने वाले आदमी से बातकर मालती निरंजन के पास लौट आई।
“वो तो गई साहेब। अब कल ही मिलेगी।”
“कहाँ?”
वापस लौटते हुए मालती ने बताया कि किस तरह मालती ने उसके लिए यह मौक़ा ढूँढ निकाला है। पिछले कई दिनों से रसीलीबाई किसी राजनेता के यहाँ जाती है और लौटकर आती है तो उसकी हालत बहुत खराब हो जाती है। जैसे किसी वहशी दरिंदे ने उसे नोच खाया हो।
ऐसे में मालती ने उसकी बहुत सेवा की। उसके ज़ख्म धोए और उसके आराम का इंतज़ाम करती रही। रसीली को तो खुद के खाने-पीने तक का होश नहीं रहा था। मगर समय-समय पर मालती उसकी नर्स की तरह देखभाल करती रही। बिना कहे, बिना बताए। और मौक़ा देखकर रसीली ने अपनी बात भी कह डाली। मालती के एहसानों तले दबी रसीली भी मान गई।
“उसको वो सेठ फिर बुला लिया होगा, इसलिए गई है। कल जैसा भी होगा, मैं आपको फोन से बताऊँगी।”
निरंजन वहाँ से लौट तो आया मगर सोच में डूबा हुआ था। क्यों मैं ट्रेन छोड़ उस जगह गया? आख़िर रसीलीबाई से मिलने तो हरगिज़ नहीं गया था। क्योंकि अगर ऐसा होता तो मैं रसीलीबाई से न मिल पाने पर दु:खी या परेशान होता। मगर मैं तो एक अजीब सी संतुष्टि से भरा हुआ हूँ। जैसे जो काम करने गया था बस वही कर के लौटा हूँ। इसका क्या मतलब है? कि मैं मालती से मिलने के लिए व्याकुल था? नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता।
निरंजन ने अच्छी से अच्छी लड़की को कभी अपने अपनत्व के दायरे को भेदकर करीब आने का मौक़ा नहीं दिया। उसके लिए सब उसके लायक ही नहीं थी। वह तो किसी अदभुत मिट्टी का बना है, उसका मेल इन तुच्छ लड़कियों से हो ही नहीं सकता था। फिर मालती?
वह क़ाफी देर तक मालती में बुराईयाँ ढूँढता रहा ताकि उसके प्रति आकर्षण को खत्म कर सके। मगर जितना सोचता उतना धँसता चला जाता। नफ़रत उपजाने के चक्कर में उसके मन में कोमल भाव उत्पन्न होने लगे और उसने बेड पर लेटे-लेटे ही पैंट की दायीं जेब में हाथ डालकर पायल निकाल ली।
पायल से खेलते-खेलते कब वह सो गया, पता नहीं? मगर उसकी नींद फोन की घंटी ने तोड़ दी। बाएँ जेब में पड़े फोन की घनघनाहट से सुन वह उठ बैठा और सीने पर रखी पायल छम से नीचे बिस्तर पर गिर पड़ी।
मालती का फोन था।
“अभी आ सकते हैं साहब।“
निरंजन ने फोन कान से अलग कर आँख के सामने लाकर मिचमिचाती आँखों से देखा। लगभग ढाई बज रहे थे।
“अभी? अभी तो ढाई बज रहे हैं।“
“ह हा हा। हाँ साहेब। हमारे लिए तो रात के ढाई बजे मतलब दिन के ढाई बजे।“
“अच्छा आता हूँ।“
निरंजन फोन काटने को हुआ कि मालती की फोन में अब भी आती आवाज़ सुन रुक गया।
“साहेब….साहेब..”
“हाँ..बोलो…क्या हुआ?”
“आज जिधर लेकर गई थी। उधर ही चले जाना। वो उधर ही मिलेगी आपको।“
“क्यों? तुम नहीं रहोगी?”
“नहीं। आज एक कस्टमर है मेरा।“
निरंजन के सीने में धक सा हुआ। क्यों हुआ? पता नहीं?
“लेकिन मैं रास्ता कैसे ढूँढूँगा? मैं खो गया तो?”
“ठीक है। मैं मामा को बोल दूँगी।“
इससे पहले की निरंजन और कुछ बोल पाता, फोन कट गया। वैसे वह बोलता भी क्या?
मालती के मामा के साथ उस गुफादार गैलरी से गुज़रते हुए निरंजन ने महसूस किया कि मालती का कमरा अंदर से बंद है और अंदर बल्ब जल रहा है। उसी समय उसके भीतर ही भीतर न जाने क्यूँ साँप लोटने लगा। वह सारे रास्ते मालती के बारे में सोचता रहा।
उसी सजे-धजे कमरे में पहुँचकर देखा तो रसीलीबाई अपनी पूरी सज-धज में उसका इंतज़ार करती मिली। वह कोई कयामत की बला तो नहीं थी जिसपर एक ही पल में कोई मर मिटे। हाँ मगर मेकअप इंसान को क्या से क्या नहीं बना देता। मालती भी इतना सज-धज जाए तो? एक पल के लिए निरंजन मन ही मन हँसा। वह भी कोई रईसज़ादा होता तो यह सज-धज उसके माकूल होती। मगर उस जैसे निठल्ले, ठनठन गोपाल के लिए यह सब लकड़हारे की सोने की कुल्हाड़ी की तरह था।
रसीलीबाई ने बड़े इत्मीनान से निरंजन के उत्सुक सवालों का जवाब दिया। उसका लहज़ा किसी खानदानी रसूखदार से कम न था। शायद इसीलिए चौक की सबसे बेहतरीन चीज़ थी वो। समय-समय पर निरंजन के जलपान का भी पूरा ख्याल रखा। मगर निरंजन को इतनी रात गए कुछ खाने की आदत नहीं थी सो…।
खैर, बातचीत के दौरान रसीलीबाई के बारे में जानकर निरंजन को बड़ा आश्चर्य हुआ मगर साथ ही खुशी भी हुई कि उसकी कहानी और तड़केदार हो जाएगी। सजी-धजी रसीली को देख निरंजन को हैरत हुई कि पिछली कुछ रातों से वह पीड़ा झेल रही है। उसे यह भी लगा कि ऐसे में तो उसे यह जगह छोड़कर चले जाना चाहिए या फिर अपने किसी आशिक़ से शादी ही कर लेनी चाहिए।
रसीली पहले तो उसके सभी हैरत भरे सवालों पर हँसती रही। मगर थोड़ी ही देर में हर सवाल पर उसकी आँखों में एक अजीब सी पीड़ा छलछला उठती, जो वो न अंदर छुपा पा रही थी और न बाहर ही लुढ़का पा रही थी। बस आँखों पर पतली झिल्ली सी बनकर तैर रही थी।
उसने निरंजन को बताया कि कैसे घरेलू हिंसा से तंग आकर उसने अपना घर छोड़ दिया और बेघर औरतों के कोई समाज नहीं होते। जिस पीड़ा को निरंजन असह्य समझ रहा है उससे कहीं अधिक पीड़ा तो वह पत्नी बनकर झेल चुकी है।
“अब दर्द नहीं होता साहब। बहुत दर्द देखा है ज़िंदगी में।“
“ठीक है। मगर बेवजह दर्द क्यों सहना। कई लोग आपसे शादी करना चाहेंगे। कितने तो आपकी चौखट पर पानदान लिए खड़े होंगे।“
रसीली मुस्कुराई। निरंजन का इशारा वो खूब समझती थी।
“साहब। पत्नी बनकर देख चुकी हूँ। बेवजह शक़ करना पतियों की आदत है। फिर अब अगर किसी से शादी कर भी लूँ तो उसके पास शक़ करने की वजह भी होगी। आज, यहाँ जो मेरा रुतबा है वो बाहर निकलकर क्या होगा? जो लोग आज यहाँ पानदान लिए खड़े हैं वो बाहर जाने पर पत्थर लेकर खड़े हो जाएँगे….।“
अभी निरंजन उसकी कही बातों की जुगाली ही कर रहा था कि रसीली आगे बोली।
“और साहब। दर्द तो अपनी रोज़ी-रोटी है। घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या?”
निरंजन के आँखों के आगे रसीली की ज़िंदगी की पूरी कहानी का हर दृश्य साफ़-साफ़ नाच रहा था। उससे बात करके लौटा तो वहाँ से गुज़रती हर औरत के लिए उसकी नज़र बदल चुकी थी। मगर फिर एक सवाल कौंधा कि रसीलीबाई तो भरा-पूरा घर परिवार पीछे छोड़कर आई है। क्या मालती भी?
निरंजन को अचरज हुआ कि पहली बार वह इतनी देर तक मालती को भूल पाया। वरना अब तक तो वह मालती नाम की बीमारी से पूरी तरह ग्रस्त हो चुका था। रसीली से जुड़ी उसकी उत्सुकता तो शांत हो गई थी मगर अब वह मालती को लेकर उत्सुक था। उसका भी तो कुछ न कुछ इतिहास रहा होगा।
उसी गैलरी से लौटते हुए उसने उत्सुकतावश मालती के कमरे की ओर देखा। कमरे की लाइट जल रही थी मगर कमरा शायद अंदर से बंद नहीं था। दोनों पल्ले सटे हुए नहीं थे। निरंजन ने पैंट की जेब में हाथ डाला तो पायल झनक रही थी। दूसरे हाथ से उसने दरवाज़े का पल्ला छुआ भर था कि दोनों पल्लों में जगह बन गई, जहाँ से वह मालती को चुपचाप-गुमसुम बैठकर कुछ सोचते हुए देख सका।
उसने दरवाज़े पर दस्तक दी। मालती उठी और उठकर दरवाज़ा पूरा खोल दिया।
“बोलो साहेब! काम हुआ आपका?”
“हाँ। शुक्रिया बोलने आया था।“
“हे हे …..मैंने तो कुछ भी नहीं किया।“
“जो किया तुम्हीं ने किया। मैं तो कभी न मिल पाता तुम्हारी हिरोइनी से।“
मालती खिलखिलाकर हँस पड़ी। निरंजन कुछ देर मंत्रमुग्ध देखता रहा। फिर आगे बोला।
“मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया था।“
“मेरे लिए? अच्छा! अंदर आओ न तुम… साहेब।“
अंदर आते हुए निरंजन ने मालती की झिझक दूर की।
“अरे नहीं …’तुम’ भी चलेगा।“
“अरे नहीं साहेब। कहाँ मैं? कहाँ आप?”
“क्यों क्या हुआ? तुम तो हिरोइनी की दोस्त हो। मैं तो कुछ भी नहीं।“
मालती फिर खिलखिलाकर हँस पड़ी और इस अकेलेपन का फायदा उठाकर निरंजन उसे देर तक घूरता रहा। मालती दिखने में चाहे कितनी ही भोली लगे, मगर थी तो अपने हुनर में माहिर। अब तक निरंजन की नज़र पढ़ चुकी थी। जाने मालती ने उसमें क्या देखा, अपने लिए प्रेम या फिर एक और ग्राहक? मगर अब तक वो उसे नज़रों से बाँध चुकी थी। निरंजन भी जैसे कब से बँधने के लिए ही तैयार बैठा था।
निरंजन फिर ऐसा बँधा कि दिन क्या और रात क्या? मालती का सीलन भरा कमरा और कईयों का रौंदा हुआ बिस्तर भी उसे वहाँ से दूर नहीं रख पाया। यहाँ तक कि अपने फोन में मौजूद उन सब लड़कियों के चैट भूल चूका था जिन्हें वह बेकार समझकर ठुकरा चुका था। निरंजन ने बहुत लड़कियों के आगे अपना भाव बनाया और जब वे उसके प्रेम में पड़कर उससे निकटता की चाह करने लगी तो उसने उन्हें दुत्कार दिया जैसे उसकी निकटता अनमोल है और किसी भाग्यवान के हिस्से में ही आएगी।
आज वही निरंजन मालती की गलियों के निरंतर चक्कर लगा रहा था। उसकी लेखनी और लेखन कौशल सब एक ओर धरा का धरा रह गया था। रसीलीबाई के आशिक़ों को कौतुक समझ उनपर कहानी लिखने वाला खुद कहानी बना फिर रहा था। अपनी एक-एक पाई को वह इस गली के नशे में डुबा चुका था।
रसीलीबाई की तरह मालती का भी कोई आशिक़ हो सकता है? यह तो मालती ने भी नहीं सोचा था। मगर रसीलीबाई के आशिक़ खानदानी रईस हुआ करते थे। भला निरंजन के बस का कहाँ? उसने सोचा कि मालती उसे बहुत चाहती है, उसका बड़ा आदर-सत्कार और सम्मान करती है। उसकी भोली-भाली आँखों में भी अथाह प्रेम का सागर उमड़ता है। फिर क्यों न विवाह कर लिया जाए। एक ही बार में मालती अपनी हो जाएगी और रोज़-रोज़ के चक्कर और खर्चों से बचा जा सकेगा। सबसे बड़ी बात कि फिर कोई उसकी ओर नज़र उठाकर भी नहीं देख सकेगा।
उस दिन, नहीं उस रात निरंजन अपने गालों पर सदा छाई रहने वाली कहानीकार वाली दाढ़ी साफ़ कर आशिकों वाले इत्र लगाकर अपने नए सिले-सिलाए बुशर्ट और पैंट में गया। मालती भी चक्कर खा गई कि रोज़ अधेड़ सा दिखने वाला उसका यह ग्राहक, इतना नौजवान भी हो सकता है। एक पल के लिए तो उसे भी लगा कि शादी हो जाती इसके साथ, तो मज़ा आ जाता।
मगर जब निरंजन ने दो महींने से सँभाली हुई चाँदी की पायल अपने पैंट की जेब से बाहर निकाली तो मालती को भी अपने शादीशुदा जीवन के उम्र का अंदाज़ा हो गया। जिस ठनठन गोपाल के पास उसे देने के लिए केवल यह चाँदी की पायल हो भला उसे शादी के बाद कैसे रखेगा। यहाँ कम से कम रोटी का जुगाड़ तो है। और क्या पता कुछ दिन बाद मन भर जाए तो फिर इसी गली में छोड़ जाए। जब यहीं आना है तो फिर यहाँ से जाना क्यूँ? फिर जब रसीलीबाई जैसी औरत में दम नहीं कि किसी का हाथ थाम ले तो भला यहाँ और कौन तोप है?
निरंजन ने जब एक घुटने के बल झुककर उसका एक पैर अपनी जाँघ पर रख उसे पायल पहनाया तो वह उसी क्षण खो सी गई और मन ही मन उसकी हो भी गई। इसी भावुक क्षण में निरंजन ने प्रेमियों का वह चिरंतन प्रश्न पूछ डाला। प्रश्न का उत्तर सोच मालती को गुदगुदी तो बहुत हुई मगर निरंजन की तरह उसका दिमाग बंद नहीं हुआ बल्कि दुगुनी तेज़ी से चलने लगा। और चलते हुए दिमाग ने मन की उड़ान को भी पीछे छोड़ दिया।
निरंजन से इन दो महीनों की नज़दीकी के चलते वह निरंजन को सीधे-सीधे मना करने से हिचकती थी। तो कह बैठी कि उसकी माँ ही यह निर्णय लेंगी।
भौचक्क निरंजन आँख चुराती मालती का चेहरा देखता रह गया।
“तुम्हारी माँ?”
ज़मीन को आँखों ही से कुरेदती मालती ने निरंजन की शंकाओं का एकबारगी समाधान करते हुए अपनी और माँ की सारी कहानी बयाँ कर डाली कि कैसे उसकी विधवा ब्राह्मणी माँ यहाँ पहुँचा दी गई। कम उम्र में सधवा भी हुई और विधवा भी। घर से बाहर निकलने में ससुराल की नाक कटती थी और घर के भीतर दो निवाले देने में जेठ-जेठानी की संपत्ति लुटती थी। खुद तो भूखी रह भी लेती, मगर पेट में पलती मालती को कैसे भूखा रखती। ऐसे में दूर के एक रिश्तेदार ने आसरे का झाँसा देकर पास बुला लिया और यहाँ लाकर बेच दिया।
“तो बाबू मुझे तो माँ ने बड़ा किया, पाला-पोसा, वही बताएँगी कि मेरा क्या होगा?”
निरंजन ने मन ही मन सोचा कि पालते-पोसते और बड़े करते तो माँ-बाप ही हैं। मगर इतना कौन सोचता है जितना मालती सोच पा रही है। उसी ने कहाँ सोचा है कभी, गाँव में रह रहे अपने माँ-बाप के लिए। वे बेचारे तो सोच रहे हैं कि उनका लड़का शहर में नौकरी के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ लड़ रहा है।
खैर, जो भी हो इस समय तो इतनी मेहनत से कमाई मालती को पाने के लिए कुछ भी कर जाना है। सो मालती के साथ ऊपर के एक कमरे में उसकी माँ से मिलने गया। उसने सोचा था कोई निरीह वृद्धा अपने जीवन की तकलीफों की झुर्रियाँ अपने पोपले मुँह पर ओढ़े उसे मिलेगी। और वह हीरो बनकर उसकी बेटी से शादी करेगा और उसकी बेटी को इस जहन्नुम से आज़ाद करेगा।
मगर अधेड़ उम्र की हरी काँजीवरम पहने उस महिला को देखकर वह चौंक गया जिसके मुँह में पान ठूँसा हुआ था और नाक के बगल में जड़ा हुआ बड़ा सा मस्सा उसके गोरेपन की दाद दे रहा था। चेहरे की चिकनाई बल्ब की रोशनी में दमक रही थी। हरी चूड़ियों में लगाकर पहनी सोने की अपनी चूड़ियों को कलाई के ऊपर चढ़ाती हुई जिस बेबाक और बदतमीज़ लहज़े में उसने निरंजन से बात की, वैसे किसी ने उसके साथ कभी नहीं की थी। उस भरी सभा में जो अदृश्य सा तमाचा रजनी जी ने जड़ा था, वह भी बड़े सलीके से जड़ा था।
“देख भाई! तेरे बाप का माल तो है नई जो तुझे ले जाने देंगे। हमारी तो रोज़ी-रोटी, पहनना-ओढ़ना सब इसी लड़की से है। तो क्या तेरी आशिकी के चक्कर में हम भूखों मरें। चल अब बहुत हो गया तेरा। लड़की के आस-पास दिखाई न देना। बहुत हो गई तेरी आशनाई।“
निरंजन हक्का-बक्का देखता रह गया और समझ ही न पाया कि क्या बोले। वैसे कोई वहाँ चाहता भी नहीं था कि वो कुछ बोले क्योंकि वह जैसे ही कुछ बोलने को हुआ कि कुछ समझाए उस बेडौल औरत को कि उसने चीखकर किसी ‘रसूल’ को आवाज़ लगाई।
पीछे मुड़कर देखा तो वही आदमी दौड़ा आया जिसे मालती ‘मामा’ कहती थी।
“उठाके बाहर फेंक इस चिकने टमाटर को।“
रसूल ने आव देखा न ताव निरंजन को बाहर की ओर धकियाने लगा। निरंजन ने विरोध का प्रयास किया तो उस मामा ने दोनों हाथों से उसकी कमर बाँध ली और इससे पहले कि निरंजन कुछ समझ पाता, उसे पहली मंजिल के बरामदे से उठाकर नीचे फेंक दिया।
निरंजन की पसलियों में ज़ोर का दर्द हुआ। आस-पास के लोगों ने उसे गिरते हुए देखा मगर फिर सब अपने काम में लग गए। सबने सोचा कि कोई ग्राहक बिना पैसे दिए निकलने की कोशिश कर रहा होगा। या शायद यह रोज़ की बात होगी। जो भी हो मगर निरंजन को बेहोशी आ रही थी। आँखें बंद होने को थीं और उन अधमुँदी आँखों से उसने देखा कि मालती ने वहीं से वह इक पैर की पायल निकालकर उसकी ओर उछाल दी जो छम से आकर उसके सीने पर गिरी। और इसके साथ ही निरंजन बेहोश हो गया।
जब निरंजन को होश आया तो वह अस्पताल में था और सौरभ उसके बगल में बैठा उसके होश में आने का इंतज़ार कर रहा था। सौरभ ने बताया कि उसके फोन से किसी ने सौरभ को फोन कर दिया था। मगर उसका स्क्रीन लॉक किसने खोला होगा। उसके दिमाग में फिर मालती नाम की बिजली कौंधी। कई बार वो उसका फोन खोलकर गेम खेलती थी।
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