सामाजिक

लेख– पत्रकारिता जब सुरक्षित नहीं, फ़िर जनसरोकार का मुद्दा कैसे मजबूती से उठेगा।

जागेंद्र सिंह, अक्षय सिंह, उमेश राजपूत, राजेश मिश्र, नवीन गुप्ता और अब मध्यप्रदेश के भिंड जिले के संदीप शर्मा। ये सभी वे नाम है। जो पत्रकारिता के सिद्धांतों पर बढ़ रहे थे, औऱ मौत के मुंह तक पहुँच गए। ऐसे में अगर पत्रकारिता के जो प्रमुख सिद्धान्त हैं। जिसमें निष्पक्षता और सत्य उजागर करना आदि बातें आती है, वहीं अब उनके लिए चुनौतियां बनती जा रही। फ़िर ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकारिता का बिगुल कमजोर पड़ना स्वाभाविक है। इसके अलावा आज समाज का जो हिस्सा निष्पक्ष खबरों की पैठ अपने तक चाहता है, वहीं सोशल मीडिया पर पत्रकारों को गाली और धमकी देता है, औऱ रिपोर्टिंग के दौरान मारे गए पत्रकारों के लिए इंसाफ़ की मांग करने के लिए भी आगे आने से कतराता है। फ़िर यह उम्मीद कैसे समाज कर लेता है, कि एक पत्रकार अपनी लेखनी से समाज की दशा और दिशा का निर्धारण करता प्रतीत होगा। पत्रकारिता भी पेशे में तब्दील हो गई है, और हो भी क्यों न। अलग से कोई इंतजाम तो है नहीं उसके लिए। आज अपने पेशे के जरिए फ़िर भी वह देश और समाज की बुराइयों और कुरीतियों को उजागर करता है। तो उसे बेहतर वातावरण काम करने के लिए मयस्सर क्यों नहीं हो पा रहा।

आज के दौर में हम पत्रकारिता के पेशे से उम्मीद करते हैं, कि वह निष्पक्ष, निडर और स्वतंत्र होकर कार्य करें। साथ में किसी विचारधारा की सड़ांध से दूर हो। पर यह न कोई संस्था औऱ संगठन सोच रही कि पत्रकारों की जिंदगी कैसे सुरक्षित की जाए। कैसे उन्हें बेहतर जिंदगी उपलब्ध कराई जाए। फ़िर ऐसे में लोकतंत्र का कथित चौथा स्तम्भ सत्ता के चरणों मे शीश झुकाने में ही सहूलियत महसूस करता है। तो फ़िर उस पर बेजा सवाल खड़ा करना भी आज के दौर में सही नहीं। लोकतंत्र में चौथा स्तम्भ का कार्य सिर्फ़ इतना नहीं की, वह सरकारी नीतियों की आलोचना ही करें। बल्कि उसका कार्य सरकार की नीतियों की स्वतंत्र रूप से समीक्षा करना होता है। जिसमें ज़िक्र सरकारी तंत्र की तारीफ़ औऱ खामियों दोनों का होना जरुरी है। लेकिन आज तुलनात्मक समीक्षा की कमी हो रहीं, जो चिंताजनक स्थिति है। आज कल बडे शहरों में ही नहीं छोटे शहरों में पत्रकारों पर हमले आम हो गए हैं। जिसके सबसे ज़्यादा शिकार होते हैं, ज़मीनी धरातल से खबरों को खोजकर लाने वाले लोग। अगर आज समाज में पत्रकारों को भेड़िए की तरह मारा जा रहा, उनको वे सुविधाएं नहीं मिल रही। जो अन्य पेशे के लोगों को मयस्सर होती है। फ़िर हम हर ख़ामी का ठीकरा पत्रकारों के सिर पर भी नहीं फोड़ सकते। पत्रकारिता के लिए अगर सभ्य समाज में खतरा बढ़ता जाएगा, तो यह स्वाभाविक बात है। गम्भीर और जनसरोकार से ज़ुड़े मुद्दों की गुणवत्ता और संख्या में गिरावट ज़रूर दिखेगी। साथ में सत्ता की गोदी में, जनता और सरकार के बीच कार्य करने वाला सेतुबंध बैठता हुआ भी दिखेगा। तो इस पर किसी को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए।

मध्यप्रदेश के भिंड में एक ख़बरिया चैनल के पत्रकार को मौत के घाट इसलिए उतार दिया गया, क्योंकि उसने रेत माफ़िया का स्टिंग ऑपरेशन किया था। तो यह लोकतंत्र के समक्ष बहुत बड़ा दुर्भाग्य है, कि वह जनसंवाद का काम करने वाली व्यवस्था को भी सुरक्षित वातावरण उपलब्ध नहीं करा पा रही। वैसे जिस जमात से जनसरोकार के विषय को तूल देने की महत्वाकांक्षा हमारा समाज रखता है, उसे अपने पेशे की ख़ातिर जान गंवाने का देश में कोई पहली मर्तबा बात नहीं। यह तो लोकतांत्रिक व्यवस्था का दस्तूर बनता जा रहा। ऐसे में अगर सिर्फ़ रहनुमाई व्यवस्था जांच का आदेश देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है, औऱ समाज को नई दिशा और दशा दिखाने वाले के हत्यारों पर कोई आंच आती नहीं। फ़िर यह उस पेशे के लोगों के साथ अन्याय हो रहा, जो अपना सर्वस्व त्याग समाज के लिए करने को तैयार रहते हैं। सूबे में पत्रकार की मौत के बाद जांच की बात केंद्रीय सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने की। उन्होंने कहा, कि मध्यप्रदेश की सरकार को उचित जांच के बाद कार्रवाई करनी चाहिए। उन्होंने साथ में कहा सत्य को उजागर करना बहुत ज़रूरी है। पत्रकारिता सिर्फ़ पेशा नहीं, जीवन जीने का सिद्धांत है। पत्रकार बहुत जिम्मेदारी का काम करते हैं, उनके जीवन को सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए, साथ में पत्रकारों को काम करने की आज़ादी। तभी लोकतंत्र मज़बूती की तरफ़ अग्रसर होगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896