गीत/नवगीत

मधुगीति – कितने मासूम से सबाल रहे !

कितने मासूम से सबाल रहे, बवाल बिना बात होते रहे;
ख़याल अपने अपने सब थे रहे, ख़ुदी को खोते राह चलते रहे !
ज़िद में जो भी थे रहे जलते रहे, हदों को मिटाते मिलाते रहे;
सरहदों आफ़ताब तकते रहे, कितने मायूस से मिज़ाज़ रहे !
मुक़ाम आसपास सबके रहे, ज़ुकाम दूरियाँ कराते रहे;
दुकान अपनी वे चलाते रहे, शकून उससे कभी पाते रहे !
चिलमनों उलझे कभी मन सुलझे, चिर-मना हो के कभी वे विहरे;
रहे सिहरे भी कभी मन दुहरे, कभी चेहरों पे रहे थे पहरे !
आया अहसास तो क़यास गए, प्रयास पनपे पराकाष्ठा गहे;
‘मधु’ अपने से लगे मोह गए, हो के मर्मज्ञ अज्ञ अपने लगे !
गोपाल बघेल ‘मधु’