गीतिका/ग़ज़ल

व्यंग्य ग़ज़ल-एकता ही नहीं है

उसे अपना कल्चर पता ही नहीं है.
वो कुत्ता है पर भौंकता ही नहीं है.

कई बार उसको बनाया है मुर्गा,
मगर वो सुबह जागता ही नहीं है.

न मेकअप करे तो करे भी वो क्या फिर,
उसे कोई भी देखता ही नहीं है.

जो मिल जाये उसको तो फैला ही देगा,
मगर क्या करे रायता ही नहीं है.

ख़तावार जो है वो है पैसे वाला,
सभी कहते उसकी ख़ता ही नहीं है.

पढ़ा शांति का पाठ हमने है इतना,
कि अब ये लहू खौलता ही नहीं है.

जो हम एक हों तो ये दुनिया हिला दें,
मगर क्या करें एकता ही नहीं है.

— डॉ. कमलेश द्विवेदी
मो.9415474674