कविता – मानवता का अंत
ये क्या हो रहा है आज
मिला हमें कैसा यह ताज
इंसानी पाश का खंडन कर
जाती,धर्म,सम्प्रदाय में विखंडित कर
तरुणियों की शुचिता का दमन किया
हाय रे इंसान! फिर से तूने मानवता का अंत किया।
छीन लो हमसे हमारी पहचान
कर दो सुपुर्देखाक मज़हबी लबादों की शान
हर मात की अश्रु का तूने व्यंग्य किया
हाय रे इंसान! फिर से तूने मानवता का अंत किया।
इंसान का इंसान होना है प्रयाप्त
यह महज़ किवदंती नहीं कर लो आत्मसात
विधि में कथित समता का अभाव दिया
हाय रे इंसान! फिर से तूने मानवता का अंत किया।
सुंदर