लघुकथा – देशप्रेम
चुनाव के आसपास होने वाली रैली किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं होती । कार्यक्रम से घर लौटे नेताजी बहुत खुश थे। आज की रैली में बहुत भीड़ थी। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के समक्ष, उनका का कद आज और ऊँचा गया था । यानि कि… भीड़ को खरीदने में लगा पैसा, जल्दी ही सूद समेत वापिस आने वाला है । लाभ-हानि का सोच ही उनके होठों पर मंद-मंद मुस्कान फैल गई ।
कुछ समय बाद एक और कार्यक्रम था । रास्ते में उन्होंने 5-7 वर्षीय लड़के को झंडे बेचते देखा । आसपास मिडिया को देख, उन्हें अपनी छवि चमकाने का उन्हें एक और मौका मिल गया । गाड़ी से उतर, उन्होंने बच्चे के सर हाथ फेरा, उसे 100 का नोट पकड़ाया, फोटो खिंचवाई और सारे झंडे खरीद लिए ।
पर ये क्या…. नेताजी की पैनी नज़रों ने तिरंगे के नीचे के उनकी पार्टी के चिन्ह को पहचान लिया। गुस्सा छुपा, सेक्रेटरी संग गाड़ी में बैठ गए । सेक्रेटरी को झंडा दिखा गुर्राते हुए बोले, “देखो ! अभी इन तिरंगों को उन कमीने गरीबों में बांटा था और ये घटिया लोग दो-चार रुपये के वास्ते देश के झंडे को भी बेचने से नहीं झिझकते |”
तभी रेडियो पर “कफन घोटाले” की डिटेलस आने लगीं । सेक्रेटरी ने कुटिल मुस्कुराहट से नेताजी को देखा और नेताजी ठहाका लगा कर हंस पड़े ।
— अंजु गुप्ता